दुनियाँ बदल गयी है,लोगों की विचारधारा में बहुत सारे परिवर्तन हुए हैं.सभ्य समाज की स्थापना हेतु हम तर्क और वितर्क में अपने आदर्शों को रखते हैं.पर क्या हो जाता है इस तथाकथित सभ्य समाज को, जब दहेज का मुद्दा सामने आता है? क्यों हमारी मति मारी चली जाती है, जब हमारे बेटों के विवाह का वक्त आता है? बेटियों की शादी के समय तो हम दहेज प्रथा को जम कर कोसा करते हैं, पर बेटों का वक्त आता है तो हम अपने लोभ पर काबू नही रख पाते हैं, और यह कहते सुने जाते हैं कि एक मेरे न चाहने से समाज थोड़े ही बदल जाएगा?
देखा जाय तो दहेज प्रथा बहुत ही पुरानी परंपरा है.रामायण और महाभारत के काल में भी इस प्रथा का उल्लेख मिलता है,पर उस समय ये कन्या को पिता द्वारा स्वेच्छा से वर पक्ष को दिया जाने वाला उपहार होता था.इसे एक आदर-सत्कार का प्रतीक माना जाता था.पर आज इसका सबसे विकृत रूप हमारे सामने है,जहाँ ये समाज में ‘स्टेटस सिम्बल’ बन चुका है.सभ्य समाज के तथाकथित ठेकेदार आज दहेज के नाम पर सौदेबाजी पर उतर चुके हैं और पूरा माल न मिलने पर शादी तोड़ने पर तो आमादा रहते ही हैं,साथ ही दहेज के नाम पर कन्या की हत्याओं का सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है.
जब लड़कियों की जागरूकता की बात शुरू हुई और लड़कियों ने शिक्षा के क्षेत्र में भी बाजी मारनी शुरू की तो माध्यम वर्गीय परिवार ने सोचा कि शायद लड़कियों के गुण को देखकर लड़केवाले अपनी सोच में परिवर्तन कर ले और इस कुरीति में कुछ कमी आ जाय, पर हो न सका.अधिकांश मामलों में लड़कियों की सफलता भी उनके भाव बढ़ा न पाई.शिक्षा दहेज का विकल्प तो बन न पाई उल्टे अब लड़कियों की शिक्षा पर भी खर्च करो और ऊपर से दहेज की मांग भी पूरी करो.
पर कहीं-कहीं हालत कुछ-कुछ बदले भी दिख रहे हैं.अगर लड़की जॉब में है तो ये बात लड़कों की पहली पसंद हो जाती है.उनका ये मानना है कि नौकरीपेशा लड़कियां परिवार के लिए एक बड़ा असेट है.पति-पत्नी दोनों अगर धनार्जन कर रहे हैं तो परिवार की सारी जरूरतें आसानी से पूरी हो सकती है और जिंदगी की गाड़ी पटरी पर रफ़्तार से दौड सकती है.आज शिक्षित वर्ग के थोड़े परिवार ऐसी भी हैं जो दहेज की अपेक्षा नही रखता है.शिक्षित व नौकरीपेशा लड़कियों की मांग बढ़ रही है.कुछ परिवार ऐसी लडकियां मिल जाने पर कोई ठोस मांग नही रखते हैं.उनकी सोच है कि लड़कीवाले अपनी बेटी को जो देना चाहें, दें.
अगर देखा जाय तो धीरे-धीरे समाज में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी बनता जा रहा है जिनकी सोच इस मामले पर भी विकसित हो रही है.लड़कियों की शिक्षा जहाँ उन्हें आत्मनिर्भर बना रही है वहीं वे इन कुरीतियों से लड़ने में भी सक्षम हो रही हैं.शिक्षित लड़कियां अपने सभी दायित्वों को बखूबी निभा रही है और वे परिवार की धुरी बन चुकी है.ऐसे में समाज को चाहिए कि लड़कियों के गुण को ही सबसे बड़ा दहेज मानें और २१वीं सदी में भी जारी इस कुरीति को दूर करने हेतु आगे आयें.
क्या नौकरीपेशा लड़कियां है दहेज का विकल्प ?
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
July 01, 2011
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