पिछले दिनों मैं पटना से अपने घर मधेपुरा के लिए ट्रेन से सफर कर रहा था। ट्रेन में मेरी बगल वाली सीट पर रामानंद शर्मा बैठे थे। बातों-बातों में मैनें उनसे एक सवाल पूछा कि आपका पेशा क्या है? इस पर उन्होनें मुझे जो जबाब दिया वो कुछ हद तक मुझे स्तब्ध करने वाला और सोचने पर मजबूर करने वाला था। उन्होनें जबाब दिया कि
“मैं कुछ नहीं करता, बेकार हूँ ........... किसान हूँ।”
मैं जबाब सुनकर चुप हो गया, कुछ देर सोचा फिर बोला कि आप ऐसा क्यों सोचते है कि आप बेकार हैं। अरे! आप लोगों पर ही तो देश आश्रित है। मेरी ये बातें थोड़ी दार्शनिक थी, लेकिन जब रामानंद जी जबाब दे रहे थे तो उनकी ऑखों में निराशा साफ झलक रही थी।
सफर लंबा था, इसलिए मैनें उनसे कुछ और जानना चाहा। उन्होनें बताया कि उन्होनें वर्ष 1988 में अपनी स्नातक की पढाई पूरी की और तबसे कृषि के व्यवसाय से जुड़े हुए है। पहले एक ट्रेक्टर भी खरीदा था, जो घाटे के कारण बेचना पड़ा। रामानंद जी की माली हालत पिछले कुछ सात सालों से ठीक हुई है। उनका बेटा सीआईएसएफ में भर्ती हुआ है। अब तो उन्होनें कर्ज लेकर मकान भी बना लिया है। कृषि उत्पादन की घटती दर और घाटे को देखते हुए उन्होनें अगले कुछ वर्षों में कृषि छोड़ गॉव में पठन-पाठन से जुड़ने का निर्णय लिया है। इस पर मैनें उनसे कहा कि वो कृषि को न छोड़े, क्योंकि यही हमारे देश की पहचान है और उन्हीं लोगों के कारण भारत किसानों का देश कहलाता है। पर मेरी ये बातें व्यावहारिक न थी जिसे मैं और वो दोनों बखूबी जानते थे।
आज ना जाने रामानंद जैसे और कितने किसान कृषि छोड़ कुछ और करने की सोच रहे हैं। अगर ऐसा हुआ तो निश्चित तौर पर आने वाले समय में देश के सामने एक समस्या खड़ी होने वाली है। एकतरफ किसान खेती से निराश होकर आत्महत्या कर रहे हैं और दूसरी तरफ कृषि सरीखा व्यवसाय छोड़ने पर विवश हो गए है। कृषि में उत्पादन और किसानों को हो रहे घाटे की बात आज किसी से छिपी नहीं है। आजादी के समय जहॉ देश की अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान 50 से 70 प्रतिशत था, वो आज घटकर 17 प्रतिशत तक आ गया है। यही नही अभी भी इसमें निरंतर गिरावट दर्ज की जा रही है।

आत्महत्या के इस बढती दर के कारणों की बात करे तो मिट्टी की उपजाऊ क्षमता में आयी कमी के अलावा जो कुछ और कारण है जिन्होनें किसानों की कमर तोड़ दी है में, बीजों और खासकर खाद की कालाबाजारी के अलावा मजदूरों के लगातार विस्थापन की समस्या भी एक है। इसके अलावा अनाज पर समर्थन मूल्य जो किसानों की मेहनत और लागत के मुकाबले कहीं खड़ा नही उतरता ने भी कृषि को धक्का पहुँचाया है।
समर्थन मूल्य का चक्कर तो ऐसा है कि बीते वर्ष पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में गेंहू की बुआई भी न हो सकी। खेतों में गन्ने की फसल लगी उचित समर्थन मूल्य न मिल पाने के कारण जस की तस पड़ी रही। अगर आगे भी खेतों में इसी तरह फसल लगी रही गई और समय पर बुआई नही हो पायी तो यकिनन खद्यान्न संकट में बढोत्तरी ही होगी।
केन्द्र और राज्य सरकारें भले ही कृषि और किसानों को लेकर खासी चिंता व्यक्त करें पर सच्चाई यही है कि जमीनी स्तर पर ऐसा कोई काम देखने को नही मिला है, जो खेती और किसानों की समस्याओं के समाधान में सकारात्मक भूमिका निभाएं।

-स्वप्नल सोनल, भारतीय जनसंचार संस्थान,नई दिल्ली.
“मैं कुछ नहीं करता, बेकार हूँ ........... किसान हूँ।”
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
January 08, 2011
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behtareen!! aapki kalam to kafi dhardaar hoti ja rahi hai.
ReplyDeleteप्रशंसा करने के लिए धन्यवाद !!
ReplyDeleteआशा करता हूँ आगे भी उमीदों पर खरा उतरूंगा .
nice job...
ReplyDeletei hope aapki is koshish se kisaanon ka kuchh to bhala ho...
बहुत ही अच्छा लेख है.भगवान् आपको बरकत दे.
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