यदि आप खुद को सामाजिक प्राणी मानते हैं तो खुदा को भूल गए होंगे मगर सामाजिक गति-विधियों से अनभिज्ञ नहीं होंगे. राज्य और राष्ट्र की राष्ट्र की राजनीति भले ही आपके पल्ले न पड़ती हो ,लेकिन सामाजिक नीति से बेखबर नहीं होंगे. सामाजिक नियन्त्रण के शायद दो अहम विधान है-नैतिकता और राजदंड.यदि नैतिकता तलाक की अर्जी बढ़ा देती है तो समाज उसे ढकेलकर अदालत की चौखट तक पंहुचा देता है. जाओ, भाड़ में और भाड़ में ऐसा की जलते रहो,मगर कभी राख नहीं बन पाओगे.![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgLvvNEty1TVFo4qIRE8Q_GfK3tTWqRFnq_VuJm8p4IKgMRFzW4cYjzR4vgii3n9GewD5GHasBCD9iBRkVDJqZbsYBqozDYfRj_E-x3zS1f5zi3Ky4tT5JQWPcj5NP-ZCJB6QSb8Q1LcPZi/s320/panchayat.jpg)
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स्वार्थपरता की अंधी दौड़ में शायद रिश्ता-नाता आज सबसे बड़ा बाधक है. उसका परित्याग करना ही कल्याणकारी है. तभी तो अपनों को भी उखारने-पछाड़ने में अपनी उर्जा झोंकना आये दिन घाटे का सौदा नहीं माना जाता. अपनी गांठ ढीलीकर औरों को मिट्टी में मिलाना सफल जीवन का अंतिम लक्ष्य रह गया है.सच,दूसरों का सुख ही अपने लिए दुःख का सबसे बड़ा कारण है.
पंच कभी प्रेमचंद की कागजी कहानी का परमेश्वर हुआ करता था,लेकिन आज वह अप्रासंगिक हो चला है.उसने कई रूपों में अपना परिचय देना शुरू कर दिया है.उसकी अनोखी अदा पर आज गिरगिट भी फ़िदा है.आज के जुम्मन शेखों के द्वारा खालाजान की खाल में भूसा भरवाने जैसे सुबह-कार्यों में उसने दिलखोल कर सहयोग किया है.श्रद्धा के सुपात्रों ने खुराफात के जितने रिकॉर्ड बनाये है, अदालत की अलमारियों ने भी अब उलटी करनी शुरूकर दी है.इनकी नीति और नियत के पुण्य-प्रभाव से बदहाल गँवारो की भरी फ़ौज अदालत परिसर में मेला का नजारा पेश करती नजर आती है.नुचवाने के लिए ये बदकिस्मत लोग आतुर रहते हैं.
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पकौड़ी चटकर उसने चाय सुड़की फिर उसके मुखारविंद से मधुर वचनामृत निःसृत हुआ,’यार,जिस चिंता में तुम दुबले होते जा रहे हो,वह तुम्हारी अपनी है नहीं और फिर आदमी भी अदालती. यदि झगड़ा-फसाद की फसल तैयार न हो तो तुम्हारी दुकान का क्या होगा? क्या वहाँ पतंग उड़ाओगे? अरे,शुक्रगुजार होओ समाज के इन तथाकथित महान आत्माओं का जिन्होंने पंचायत में पेंच डालकर, पंचकर तुम जैसों को रोजी-रोटी जुटाने में मदद कर रही है.समाज में ऐसी प्रतिभा पैदा न हो तो सामाजिक गतिविधियां ढप हो जायेगी.’उसने एक लंबी डकार ली.
मैंने जिज्ञासावश उससे पूछा “अच्छा, तुमने तो मेरी दुकान की खबर ले ली.जरा,यह बताने का कष्ट करो उन दिव्य पुरुषों को क्या गरज पड़ी की दूसरों की सोचते है?’उसने मेरे भोलेपन का मजाक उड़ाते हुए लातारा”यह तो बताओ किस संस्था ने तुम जैसे लल्लू को इतनी बड़ी सम्मानित डिग्री प्रदान की है? याद रखो,कोई किसी के लिए नहीं सोचता और न कभी सोचा है.सोचता है केवल अपने लिए,भले ही किसी और का भला हो जाता है.अक्कल से पैदल लोग आपस में उलझेंगे नहीं तो इन सूत्रधारों को घास कौन डालेगा? उन मुकदमेबाजों की पैरवी कर इनकी जेब भी जिन्दा रहती है और बेगारी अलग से.”
क्षणिक मौन रहकर फिर समाजसेवी ने रहस्यमयी कथा की अगली कड़ी जोड़ी’अन्त्योदय कार्यक्रम की शुरुआत कर सरकार ने सामंतों की सामंती को सूली पर टांग दी, लकिन उनकी शान में कमी न आई.बेगारी गई. बेकारों ने एक नई जिंदगी अपनाई.पंजाब,हरियाणा,दिल्ली और राजस्थान जैसे सम्पन्न एवं औद्योगिक प्रदेशों में मिहनत कर अपनी माली हालत हद तक सुधार ली.अपनी गाढ़ी कमाई से अब वे अपने भूतपूर्व मालिकों की ही जमीन पर पैर पसारने लगे.जो कभी ऋणदाता थे,खुद ऋणी बनने लगे. सेवाभाव की कचोट तो नासूर बन ही चुकी है.अतीत को याद कर इन प्रभुओं की आत्मा कभी-कभी कराहने लगती है.इसकी दवा भी इन्होने आसानी से ढूँढ ली है.गरज पर रुपये-पैसे देने में आनाकानी करने या दीगर परिस्थितियों में नव सुखी परिवार हेंकडी दिखता है तो पेंच लगाकर अपनी औकात दिखा देता है.’उसने जंहाई ली.
समाजसेवी ने पुनः आगे बताया ,”विवाद में उलझकर उन भलेमानुष लोगों को अधिकांश समय गाँव-समाज में बीताना पडता है. बस, पूरी हुई मुराद महापुरुषों की! मनचाही सेवा लेने का अवसर हाथ जोड़े उनकी चौखट पर हाजिर मिल जाता है.कुछ साहूकारों की किस्मत फिर से अंगडाई लेने लगती है.पौ-बारह,छः अठारह,पांचो उँगलियाँ घी में और सिर कडाही में,चित भी मेरी और पट भी मेरी.क्या अब कुछ समझ में आई तेरी?’वह लगभग हाफने-सा लगा.
समाजसेवी की सुलझी सोच और अद्भुत वाकपटुता से अभिभूत होकर मैंने अपने दिल पर हाथ रखकर ईमानदारी से स्वीकार किया, ‘यार,तुम्हारी जैसी व्यावहारिक बुध्दि तो मैंने पायी नहीं.तुम्हारे समाज ज्ञान का मै लौह मानता हूँ.इतना कहकर मै चुप हो गया.
समाजसेवी रोमांचित हो उठा. आह्लादित होकर कुछ झेंपते हुए उसने औपचारिकता पूरी की, ‘नहीं दोस्त, मुझ जैसे अधकचरा पढ़ा-लिखा आदमी किस खेत की मूली है? तुम तो आला दिमाग के बादशाह हो. लंगोटिया यार होने के नाते कभी-कभार प्यार से तुम-तराम पर उतर आता हूँ, मगर बुरा नहीं मानना.मै दिल से तुम्हारी इज्जत करता हूँ.वह कुछ भावुक हो चला था.
पंच की नस्लों और उनकी आधुनिक कला-ज्ञान के संबंध में कुरेदने पर उसने पुनः कहना शुरू किया,’पंच के प्रपञ्च के बारे में शायद तुम्हे पता नहीं.तर्क, वितर्क और कुतर्क जैसे हथियारों के सहारे ये जिंदा रहते हैं.पंचों के न्यायविवेक में वैसे कोई खोट दिखाई नहीं देती.वे तर्कशील जीव होते हैं.मुँह में दांत जरुर होते है,पर वे दिखाने से हमेशा परहेज करते हैं.वे गंभीर होकर न्याय-निर्णय में व्यस्त रहते हैं ताकि उभय पक्षों को मान्य हो.ऐसे सैद्धांतिक पुरुष निर्भय होकर अपनों के विरुद्ध भी निर्णय दे सकते हैं मगर.....” वह अपना सिर खुजलाने लगा.
“मगर! अरे,अगर-मगर को गोली मारो और शेष भाग का समापन झट से कर डालो.”मैने उबते हुए कहा.मेरी अधीरता पर विचित्र हंसी हँस कर उसने धीमे स्वर में कहना शुरू किया, “आदमी आखिर आदमी ठहरा.उसकी कुछ कमजोरियां होती हैं,जिसकी कमजोर नस को पेंच महोदय अपनी चुटकी में दबाये रहते हैं. कभी-कभी पंच की अहम भूमिका पर पर्दा डालने में वे सफल हो जाते हैं.उसके मुँह में दिखावे के दांत होते है,असल तो उनकी आंत में होते है जो न्याय को चबाने और पचाने के काम आते हैं.उनके भगीरथ प्रयास से मंगल अभियान पूरा नहीं हो पाता है.अमंगल की कामना पूरी करने के लिए पंचर जी काफी है.उसके कुतर्क मिसाइल की मारक क्षमता कहीं अधिक होती है.पंचर जी कर्तव्यपरायण प्राणी होते हैं.जिसकी रोटी-चटनी चख ली,उसके विजय अभियान में वे जी-जान से जुट जाते हैं.अपनी धोती तक खोलकर लहराने से बाज नहीं आते,चाहे खुद नंगा क्यों न हो जाय.”आगे कुछ कहने से वह दिया.
समाजसेवी के दिव्यज्ञान ने मुझे बुरी तरह परेशान कर दिया.मेरा माथा ठस्स हो चूका था.सरदर्द ने अपना साम्राज्य शनैः शनैः फैलाना शुरू कर दिया.मैं चारपाई पर उंकडू लेट गया और झंडूबाम की डिबिया मंगवाने के लिए मैने उसे दस का एक नोट थमा दिया.वह बाजार की ओर दौड़ा.....
--पी० बिहारी ‘बेधड़क’, मधेपुरा
पंच, पेंच और पंचर
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
January 07, 2011
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