जिन्दगी भर दुःखी रहते हैं भाग्य से ज्यादा की अपेक्षा रखने वाले

आदमी की पूरी जिन्दगी गुजर जाती है फिर भी भाग्य और कर्म के खेल का मर्म समझ नहीं पाता है। कोई भाग्य भरोसे जीता है तो कोई कर्म के भरोसे। कई दोनों के सहारे जीवन गुजार देते हैं ।
ढेरों ऐसे हैं जो भाग्य को भी कोसते हैं और अपने हिस्से में आ चुके कर्म को भी। बहुत थोड़े ही ऐसे संतुष्ट लोग हुआ करते हैं जो मानते हैं उनके भाग्य में जो कर्म आ चुका है वही उनकी जिन्दगी सँवारता है और ऐसे लोग पूरी एकाग्रता, प्रसन्नता और मेहनत के साथ कर्म करते हुए पूरी जिन्दगी अपनी अलग ही मस्ती में जीते हैं।
दोनों ही प्रकार के लोग अपनी एक ही चिन्तन धारा में डूबे रहें तो जीवन में प्रसन्नता का अनुभव नहीं कर सकते हैं। जो निरन्तर कर्मरत रहते हैं और कर्म को ही प्रधान मानते हैं वे भी अनवरत कर्मरत रहते हुए भी किसी न किसी मोड़ कर अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं कर पाने की स्थिति में विषादग्रस्त हो जाते हैं जबकि बहुत कम अवसर ऐसे भी आते हैं जब कर्म का फल की गई मेहनत की अपेक्षा कई गुना अप्रत्याशित रूप से प्राप्त हो जाता है, और प्रसन्नता के अतिरेक की यह स्थिति भी कई बार बर्दाश्त नहीं हो पाती है।
ऐसे में कर्म के साथ भाग्य के प्रभाव को स्वीकार कर जोड़ दिया जाए या महसूस किया जाए तो जीवन का आनंद भी आएगा और दोनों ही स्थितियों में प्राप्त होने वाला समत्व भाव आत्मीय संतुष्टि को आकार देगा।
इसी प्रकार सिर्फ भाग्य पर आश्रित हो जाने से मात्र से भी जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। और भाग्य की अनदेखी भी नहीं की जा सकती है। भाग्य मात्र को ही आधार बना लिया जाकर जीवन के लक्ष्यों में सफलता का अहसास नहीं किया जा सकता।
कर्म सभी लोग करते हैं। जिन लोगों को निकम्मा कहा जाता है वे भी चुपचाप नहीं बैठ सकते। आदमी की फितरत में शुरू से रहा है कुछ न कुछ करते रहना। ऐसे में भाग्य अच्छा हो तो आदमी उसी दिशा में कर्म करता रहता है जो उसके लिए योग्य और श्रेय-प्रेय देने वाली होती है।
इसके विपरीत अच्छा भाग्य न होने की स्थिति में व्यक्ति का लक्ष्य के प्रति भटकाव और विलोम मार्गों का चयन हो जाना स्वाभाविक है। व्यक्ति पूर्वजन्म में जिन विधाओं का अवलंबन कर चुका है, जो ज्ञान प्राप्त कर चुका है उसी प्रकार का काम-काज पा लेने पर उसकी तरक्की की रफ्तार बढ़ जाती है और इसे ही कई लोग भाग्य का खेल कहते हैं।
इसके विपरीत सब कुछ उल्टा होने की स्थिति में सकारात्मक परिवर्तन सामने नहीं आ पाते। इसे भाग्य का अच्छा न होना कहा जा सकता है। कर्म और भाग्य का मेल हो जाने पर व्यक्ति पूर्णता की ओर गति करने लगता है जबकि दोनों में किसी भी स्तर पर बेमेल होने पर विकास के अवसर बाधित होने लगते हैं।
कर्म में लक्ष्य की सफलता या विफलता और इसका न्यूनाधिक प्रतिशत किसी न किसी रूप में भाग्य पर भी निर्भर करता है। अच्छा भाग्य व समय होने पर कम मेहनत में अधिक लाभ तथा यश प्राप्त हो जाता है जबकि इसके उलट वाली स्थिति में कठोर मेहनत के बावजूद अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं हो पाती है। किन्तु कर्म को अंगीकार करते हुए इस पर भाग्य के प्रभाव को जान लिए जाने पर दोनों ही स्थितियों में समत्व और आनंद की भावभूमि बनी रहती है।
कर्म में पूर्ण प्रावीण्य और एकाग्रता होने के बावजूद अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं होने की स्थिति प्रत्येक कर्म व व्यक्ति के साथ एक ही बार आती है। दूसरी बार उसका खराब भाग्य भी उसके कर्म पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डाल सकता क्योंकि जो दुष्प्रभाव पूर्व से ही भाग्य निर्धारित होता है वह पहले कर्म से ही होता है, बाद में इसका ज्यादा प्रभाव नहीं होता।
इसलिए व्यक्ति को कर्म की निरन्तरता अपनाए रखनी चाहिए। इस स्थिति में भाग्य के भरोसे कर्म को छोड़ देना या दूसरे कर्म को अंगीकार कर लेना ठीक नहीं है। एक ही कर्म को बार-बार करने पर भाग्य की बाधाएं आड़े नहीं आती बल्कि इससे कर्म और संकल्प और अधिक बेहतर एवं दृढ़ होते चले जाते हैं और इनसे सफलताओं के द्वार अपने आप खुलते चले जाते हैं।
कई लोग ऐसे हैं जिनके भाग्य में दुःखों, अभावों और समस्याओं का जमावड़ा रहता है। ऐसे लोगों के लिए ईश्वर जीवन में कई अवसर ऐसे प्रदान करता है जो उनके अभावों को दूर कर संतोष के भाव भरने आते हैं लेकिन भाग्यहीनता की वजह से ये लोग चाहते हुए भी उनके जीवन में प्रवेश कर चुके आनंद के स्रोतों का उपभोग या उपयोग नहीं कर पाते हैं और इनके उपभोग में किसी न किसी बहाने रुकावट का बाधाएं आती रहती हैं।
ऐसे लोगों को चाहिए कि वे मनोमालिन्य छोड़ कर अनासक्त भाव से अनायास प्राप्त आनंद को हृदय से अंगीकार करें और ईश्वरीय अनुग्रह को प्राप्त करते हुए संतोषी जीवन को स्वीकार करें।
अपने जीवन में आए आनंद को जीवन भर के लिए बनाए रखना और बिना मोहग्रस्त हुए उनसे पूर्ण आनंद की प्राप्ति करते रहना ही ऐसे लोगों के लिए श्रेयस्कर है।
जो ऐसा नहीं कर पाते हैं उनके जीवन में आने वाले तमाम प्रकार के अवसर बिना कोई आनंद दिए उल्टे पाँव लौट जाते हैं। इन हालातों में भाग्य में कहीं न कहीं कमी वाले लोग जीवन भर दुःखों और विषादों से घिर जाते हैं।
आनंद और प्रसन्नता की प्राप्ति का संबंध व्यक्तियों या संसाधनों, पदार्थों से नहीं है बल्कि इनमें समाहित भावनाओं से है। मन यदि प्रसन्न रहने का अभ्यास कर ले तो जीवन में कोई भी दुःख या शोक अनुभव ही न हो। लेकिन यह स्थिति लाना सामान्य लोगों के बस में नहीं होता। पर असंभव भी नहीं।
एक बार हम हर स्थिति में मस्ती के साथ रहने का स्वभाव ढाल लें तो हमारे जीवन की कई समस्याएं अपने आप समाप्त हो जाएंगी और हमारी जिन्दगी आनंद का पर्याय बन सकती है। और ऐसे में कर्म और भाग्य दोनों से ऊपर उठकर हम सच्चे जीवनानंद को प्राप्त कर सकते हैं।

--डा० दीपक आचार्य (9413306077)
जिन्दगी भर दुःखी रहते हैं भाग्य से ज्यादा की अपेक्षा रखने वाले जिन्दगी भर दुःखी रहते हैं भाग्य से ज्यादा की अपेक्षा रखने वाले Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on October 12, 2012 Rating: 5

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