कद्दू कथा

संघर्ष और साधना के बलबूते ही आम आदमी खास बन जाते हैं.लेकिन यह भी सच है कि किसी के कुछ बन पाने के पीछे कोई न कोई लफड़ा जरूर रहा है.आधुनिक समाज में आये दिन सिनेमाई प्रेम-संबंधों का श्रेय सैंडिलों की चोट या भावनात्मक ब्लैक-मेलिंग को जाता है, जिसे सेक्स की चासनी में डुबोकर रोमांचक पटकथा तैयार की जाती है.
  खैर,औरों का अनुभव जैसा रहा हो,अपना अलहदा किस्म का है.मेरे जीवन में नाटकीय मोड़ तब आया जब कद्दू कथा ने आत्म-व्यथा की तरंग पैदा की.
  मेरे विचार से शहर में बसकर अगर कोई अपने कि तीसमार खां समझता है तो शायद भयंकर भूल करता है.निपट गंवारों के बीच कभी और कहीं भी वह लल्लू कहला सकता है.
  शहरवासियों के लिए दैनिक जरूरत की चीजों की कीमत उनकी जेब में पड़े पैसों की खनक से शायद ऊँची नही होती.अनाज का भाव भले ही भाव-शून्य हो,मगर शाक-शब्जी की कीमत आज की चड्ढी-फाड़ राजनीति से होड लेती नजर आती है.प्याज ने कभी व्यंजन-प्रेमियीं का पसीना छुडाया था.उसकी तासीर और तेवर के सामने सबने आंसू बहाए थे.आलू और टमाटर की उछल-कूद से हर कोई वाकिफ है.
  गरमी की छुट्टी थी.मैं शहर से गाँव की ओर चला.राह चलते नदी किनारे कद्दू की ढेर देखकर ठिठक गया.बेचारे किसान स्नान करवा कर उसमे निखर लाने का पूरा प्रयास कर रहे थे.लंबे-लंबे कोमल कद्दूओं ने मुझे मोहपाश में बाँध लिया.
  अति अधीरता के साथ मैंने किसान से पूछा-बिक्री-दर क्या है भैया?उत्तर मिला-तीन रूपये प्रति.मैंने सोचा शायद मजाक कर रहा है.अविश्वास के साथ पुन:पूछा.उत्तर खारीज हुआ,आपके लिए रियायत की गुंजायश अभी भी शेष है,पांच में दो चल जाएगा.मैं सोचने लगा.मुझे मौन देखकर किसान ने रिरियाते हुए कहा-दो-दो फी से कम हरगिज नहीं हो सकता,बाबू साहब.मैंने झट दो-दो के दो सिक्के उसे थमाकर अपनी पसंद के कद्दू उठा लिए और अपने कंधे पर कद्दू डालकर हैंडबैग के साथ सौतेलेपन का व्यवहार करते हुए मैंने अपने घर की राह ली.
  पुष्ट कन्धों पर युगल जोड़ी ऐसे सुशोभित हो रहे थे गोया ए.के.४७ और ए.के.५६ हो और मैं किसी पैरेड में शुमार प्रशिक्षु सैनिक.कद्दू भार के विरूद्ध कन्धों ने बगावत करनी चाही,लेकिन मन की खुशी उन्हें शांत कराने में सफल रही.
  मैं मन ही मन सोचता भी जा रहा था कि शहरी कुंजरे ऐसे दो कद्दू से दिल लगाने की कीमत कम से कम दस रूपये वसूलते,मगर किसान ने शायद सौगात में ही दे डाला.अपने गाँव की सीमा में प्रवेश करने से पूर्व एक परिचित भलेमानुष से टकरा गया.अनमनस्क भाव से उन्होंने पूछ लिया-कितने के हैं? मैंने लापरवाही से उत्तर दिया-दो-दो फी.वह अकचका कर प्रश्न का गोला पुन: दागा-क्या दोनों दो के?मैंने अकडकर कहा-नहीं प्यारेलाल, दोनों हैं दो-दो के.उसका मुंह लटक गया.बोला कुछ नहीं,नजर बचाकर बगल से गुजर गया.
  सीमा प्रवेश करते ही ग्रामीण रिश्ते में काका श्रीमन साहू के दर्शा हुए.अपने मोटे शीशे से घूरते हुए उन्होंने मुझसे पुछा-मुफ्त का माल ढो रहे हो क्या?.अप्रत्याशित और अपमानजनक टिप्पणी से मैं आहत जरूर हुआ पर चवन्नी मुस्कान के साथ मैंने सफाई पेश की-शहर की अपेक्षा बहुत सस्ता पाया,ले लिया.केवल चार रूपये में.
  उन्होंने मुझे कोसते हुए बडबडाया-हाँ,हराम की कमाई है,यूं लुटाते चलो.मैं कुछ समझ नहीं पाया.वे लाठी टेकते आगे बढ़ गए.कद्दूभर से दबा देखकर दालान पर बैठे छोटे चाचा लगभग चीखते हुए पूछा-भोज करोगे क्या?मैंने उत्साह भरकर कहा-सस्ता मिला.चार दिनों तक चाव से खाऊंगा.वे भृकुटी पर बल देते बोले-आखिर कितना सस्ता,जानूं तो!मैंने सहजता से कहा-अधिक नहीं,बीएस दो-दो के हैं.वे तिलमिलाकर बोले-अबे,अहमक!चार रूपये में तो गाड़ी भर दे जाता है.मुझपर घडों पानी पड़ गया.
  कहीं से पिताजियो प्रकट हुए.बिफरकर बोल पड़े-छोड़ो भी,इस अक्ल से पैदल प्राणी को समझाना बेकार है.इसे तो पैसे दांत कटते हैं.अपने प्रति अपनों की कटु टिप्पणी सुनकर मैं अवाक रह गया.
   हारे जुआड़ी की भांति अपनी बेजान टांगें घसीटते मैं आँगन में ज्यों ही प्रवेश किया.श्रीमती जी ने अपनी नाक-भौं सिकोड़ कर मुंह बनाती बोली-इस नायब शब्जी को सोंघने से आजकल बकरी भी परहेज करती है.मैं सन्न रह गया.क्षणिक मौन के बाद मैंने खुशामद के रस में भिंगोकर उलाहने देते कहा-अरी भाग्यवान!चार रूपये में खरीदकर चार किलोमीटर से से ढोकर इन्हें लाया हूँ.जीवन-संगिनी होने के नाते तुम भी तो प्रशंसा के दो शब्द बोल देती.श्रीमती जी आग्नेय नेत्रों से मुझे घूरती तिखट स्वर में गुर्राई-इसी कदू के शर्त पर मैं इस घर में ब्याह कर ली गयी हूँ,क्या?हुंह! वह सिलाई मशीन में उलझ गयी.
  भाई साहब!उस समय मेरी दशा ठीक वैसी ही हो गयी जैसी गठबंधन सरकार में प्रधानमंत्री की हुआ करती है.
  चारों ओर हताश-निराश होकर दुखी हृदय और दबी जुबान से समझौतावादी फॉर्मूला अपनाते हुए मैंने कहा-तो ठीक है,मैं भी तुमसे बाहर कहाँ हूँ!तुम्हारी अरूचि मेरी अरूचि है.
  दो दिनों तक रसोईघर के दीवार के सहारे टिके उन युगल कद्दूओं का मैं सौन्दर्यपान करता रहा फिर शहर लौट गया.आज भी जब कद्दू का प्रसंग छिड़ता है या उस पर मेरी नजर पड़ती है तो मेरे हाथ अनायास कन्धों को सहलाने लगते हैं और मैं उनकी याद में घंटों खोया रहता हूँ.

--पी० बिहारी 'बेधड़क', अधिवक्ता,सिविल कोर्ट,मधेपुरा 
कद्दू कथा कद्दू कथा Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on September 03, 2011 Rating: 5

1 comment:

  1. तो ये स्थिती है कोशी क्षेत्र मे किसानौ कि. . . . . . . . !

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