|वि० सं०|11 जुलाई 2013|
कोसी के इलाके में आई बाढ़ ने किसी ‘आदमी’ को कोई हानि नहीं पहुंचाई.
अलबता कई लोग कोसी मैया की कृपा के पात्र बने और संपन्न हो गए. जिन्हें हानि
पहुंची वो ‘आदमी’ नहीं थे. सरकार के आदमियों ने
पहले ही उनकी जिंदगी पशु से बदतर बनाकर छोड़ रखी थी. मर गए, खप गए, उनके परिवार के
बचे सदस्यों को भले ही दुःख हुआ पर नेता और सरकार के आदमी को क्या फर्क पड़ता है?
2008 के
बाढ़ ने इलाके के हजारों लोगों की जिंदगी बदल दी. पहले पैसे के लिए जगह-जगह मुंह
मारा करते थे, बाढ़ ने उन्हें संपन्न बना दिया. सरकार ने विदेशों से लेकर देश के
कोने-कोने से मिली मदद को पीडितों तक पहुँचाने के लिए जन प्रतिनिधियों से लेकर
अधिकारी और उनके ‘दलाल’ के हाथ में बंटवारे की सत्ता
थमा दी और इन ‘जल्लादों’ ने अधिकाँश सहायता सामग्री से
खुद के घर को भर लिया. ‘हल्दी लगे न फिटकरी, रंग चोखा हो जाए.’
हालांकि
बाद में पीड़ितों के हिस्से के माल दबाए इन शिकारियों को थोड़ा भय भी हुआ जब सरकार
की ओर से जांच शुरू हुई, पर इतने बड़े पैमाने पर जांच संभव नहीं थी, सो एक बार
मालामाल हुए लोगों से ग़रीबों और असली बाढ़ पीड़ितों के राहत को निकलवाया न जा सका.
‘राम नाम की लूट है लूट सके तो
लूट, अंत काल पछतायेगा जब प्राण जायेंगे छूट’ की तर्ज पर मधेपुरा शहरी क्षेत्र या फिर जहाँ बाढ़ से किसी
का कुछ नहीं बिगड़ा था, के ‘भद्र’ लोगों ने भी राहत सामग्री के लिए मारामारी की. शायद वो भी
अपनी जगह ठीक ही थे. क्योंकि यदि वे छोड़ देते तो जनप्रतिनिधि और अधिकारी को गटकते
देर नहीं लगती.
गरीबों
के पेट पर जोड़दार लात मारकर मुफ्त के माल से लखपति-करोड़पति बने उन ‘चांडालों’ को फिर से इन्तजार है कुसहा
जैसे बाँध के टूटने का क्योंकि कोसी इनके लिए पानी नहीं सोना बहाकर लाती है.
तटबंध पर दवाब बढते ही खिले मौत के सौदागरों के चेहरे
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
July 11, 2013
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