तू जब भी रूठ जाती है,
गजल बनके सताती है।
ना कोई गम ठहरता है,
ना खुशियाँ लौट आती है।
भटककर खुद ही आते हैं
मेरे पग मय की बस्ती में
तेरी यादों का पहरा भी
ना मुझको रोक पाती है।
सुना है तुमने अब अपना
ठिकाना है बदल रक्खा,
यकीं कैसे करेगा दिल
जो चिट्ठी वापस ना आती है।
तेरा वो मुझपे मर मिटने सा
बेकल पल को अब सोचूँ ,
वो झूठा सच मगर सच में
मुझे बेहद रूलाती है।
मेरी माँ है बहुत भोली
वो हरपल मुझसे कहती थी,
बदन ढँक के तू बाहर जा
हवाएँ सर्द आती है।
गजल बनके सताती है।
ना कोई गम ठहरता है,
ना खुशियाँ लौट आती है।
भटककर खुद ही आते हैं
मेरे पग मय की बस्ती में
तेरी यादों का पहरा भी
ना मुझको रोक पाती है।
सुना है तुमने अब अपना
ठिकाना है बदल रक्खा,
यकीं कैसे करेगा दिल
जो चिट्ठी वापस ना आती है।
तेरा वो मुझपे मर मिटने सा
बेकल पल को अब सोचूँ ,
वो झूठा सच मगर सच में
मुझे बेहद रूलाती है।
मेरी माँ है बहुत भोली
वो हरपल मुझसे कहती थी,
बदन ढँक के तू बाहर जा
हवाएँ सर्द आती है।
--शम्भू साधारण,मधेपुरा
हवाएँ सर्द आती है
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
January 06, 2012
Rating:
बहुत अच्छी कविता------ तू जब भी रूठ जाती है,
ReplyDeleteगजल बनके सताती है।