भार्या से
प्रेयसी बनने की
संपूर्ण चेष्टाओं
को धूल- धूसरित
करती तुम्हारी
हर चेष्टा जैसे
आंदोलित कर देती
मन को और
फिर एक बार
नए जोश से
मन फिर ढूँढता
नए -नए आयाम
प्रेयसी के भेदों
को टटोलता
खोजता
हर बार
एक नाकाम -सी
कोशिश करता
और फिर धूमिल
पड़ जाती आशाओं
में , अपने नेह
का सावन भरता
मगर कभी
ना समझ पाता
एक छोटा सा सच
प्रेयसी को भार्या
बनाया जा सकता है
मगर
भार्या कभी प्रेयसी
नहीं बनाई जाती
उस पर तो
अधिकारों का बोझ
लादा जाता है
मनुहारों से नहीं
उपजाई जाती
इक अपनी
जायदाद सम
प्रयोग में
लाया जाता है
माणिकों सी
सहेजी नहीं जाती
हकीकत के धरातल
पर बैठाई जताई है
ख्वाबों में नहीं
सजाई जाती
संस्कारों की वेणी
गुँथवाई जाती है
उसकी वेणी में पुष्प
नहीं सजाये जाते
अरमानो की तपती
आग मे झुलसायी
जाती है
सपनो के हार नहीं
पहनाये जाते
शब्दों के व्यंग्य
बाणों से बींधी जाती है
ग़ज़लों की चाशनी में
नहीं डुबाई जाती
आस्था की बलि वेदी पर
मिटाई जाती है
मगर प्रेम की मूरत बना
पूजी नहीं जाती
बस इतना सा फर्क
ना समझ पाता है
ये मन
क्यूँ भाग- भाग
जाता है
और इतना ना
समझ पाता है
प्रेयसी बनने की आग में
जलती भार्या का सफ़र
सिर्फ भार्या पर ही सिमट
जाता है
सिर्फ भार्या पर ही.................
प्रेयसी बनने की
संपूर्ण चेष्टाओं
को धूल- धूसरित
करती तुम्हारी
हर चेष्टा जैसे
आंदोलित कर देती
मन को और
फिर एक बार
नए जोश से
मन फिर ढूँढता
नए -नए आयाम
प्रेयसी के भेदों
को टटोलता
खोजता
हर बार
एक नाकाम -सी
कोशिश करता
और फिर धूमिल
पड़ जाती आशाओं
में , अपने नेह
का सावन भरता
मगर कभी
ना समझ पाता
एक छोटा सा सच
प्रेयसी को भार्या
बनाया जा सकता है
मगर
भार्या कभी प्रेयसी
नहीं बनाई जाती
उस पर तो
अधिकारों का बोझ
लादा जाता है
मनुहारों से नहीं
उपजाई जाती
इक अपनी
जायदाद सम
प्रयोग में
लाया जाता है
माणिकों सी
सहेजी नहीं जाती
हकीकत के धरातल
पर बैठाई जताई है
ख्वाबों में नहीं
सजाई जाती
संस्कारों की वेणी
गुँथवाई जाती है
उसकी वेणी में पुष्प
नहीं सजाये जाते
अरमानो की तपती
आग मे झुलसायी
जाती है
सपनो के हार नहीं
पहनाये जाते
शब्दों के व्यंग्य
बाणों से बींधी जाती है
ग़ज़लों की चाशनी में
नहीं डुबाई जाती
आस्था की बलि वेदी पर
मिटाई जाती है
मगर प्रेम की मूरत बना
पूजी नहीं जाती
बस इतना सा फर्क
ना समझ पाता है
ये मन
क्यूँ भाग- भाग
जाता है
और इतना ना
समझ पाता है
प्रेयसी बनने की आग में
जलती भार्या का सफ़र
सिर्फ भार्या पर ही सिमट
जाता है
सिर्फ भार्या पर ही.................
वंदना गुप्ता,दिल्ली
रविवार विशेष-कविता-"एक सफ़र ऐसा भी……"
Reviewed by Rakesh Singh
on
December 11, 2010
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