रोग आखिर रोग है.रोग चाहे कोई हो,सेहत को सूली पर टांगने के लिए काफी है.लेकिन रोगों के खानदान में लेखन-रोग का स्थान कुछ भिन्न है.
यह लेखन रोग शायद लेखक नामक प्राणी का अपना निजी रोग है.टीबी से पीड़ित व्यक्ति की बीबी भले ही लोक-लाजवश ही सही,अपने पति परमेश्वर की तिमारदारी में कभी चूक नही करती,लेकिन,लेखक के हाथ में कलम देखते ही उसकी पत्नी भड़क उठती है जैसे लाल कपड़ा देखकर सांड. पढ़ा है,अमर कथा-शिल्पी प्रेमचंद की धर्मपत्नी शिवरानी देवी को भी कुछ इसी प्रकार की एलर्जी थी.
उस दिन मेरी हालत ठीक वैसी ही हो गयी जैसे हारे हुए जुआरी और मार खाए शराबी की होती है. श्रीमती जी अचानक धावा बोल दी.दाँत पीसती वह व्यंग-गोला दागी,"यदि मेरे नैहर वालों को पूर्वपता होता कि आप लेखन रोग से पीड़ित जीव हैं तो आपके साथ शादी क्या,सगाई भी असंभव थी." मैं अवाक! उसकी विकृत मुखाकृति और विचलित मनोदशा देखकर दंग रह गया.केवल उसे देखता रहा.
इस सदमा से मैं अभी उबार भी नही पाया था कि मेरे साथ दूसरी घटना पेश आई.उम्र में छोटे मगर रिश्ता में बड़े साले साहब ने मुझे सुपाच्य सलाह देते हुए सख्त स्वर में कहा,"उधार की स्याही और कागज़ मंगवाकर दिन-रात कलम घिस कर अपने समय और स्वास्थ्य की जो बर्बादी कर रहे हैं,इससे कहीं बेहतर होता कहीं जाकर मछली पकड़ते.कम से कम उधार की शब्जी तो नही खरीदनी पड़ती! अरे,अपने आप में सुधार लाने का प्रयास तो कीजिए!" उसकी हितकर झिडकी सुनकर मैंने चिढकर मन ही मन कहा,"पका घड़ा पर कब मिट्टी चढी है,प्रभु!"
उस दिन मुझे पूर्ण एहसास हुआ कि दूसरों से जूते खाकर जितना दुःख नही होता,उससे कहीं अधिक कष्ट अपनों की गाली सुनकर होता है.फिर भी,मैं अपनी आदत से आजतक बाज नही आया जिस तरह विरोधियों के लाख चीखने-चिल्लाने पर भी सत्तादल के कान पर जूँ तक नही रेंगती.
अपनों से ताने सुनकर कभी दिल में आया भी,चुटा-खन्ती-कमंडल धारण कर निकल जाऊं किसी ओर.मगर.मेरी अंतरात्मा ने आवाज दी,"बेधड़क!तुम्हारी फितरत में ऐसा ढोंग बदा नही.तीनों लोक बिगाड़ने से क्या फायदा?" मैं अपना प्रोग्राम कैंसिल कर दिया जिस प्रकार अमेरिका की दाँत पीकर पाकिस्तान अपनी जुबान संभालता है.
भाई साहब! मैं पूर्ण होशोहवास में अपनी छाती पर हाथ रखकर ठंढे दिल से दावा करता हूँ कि लैला-मजनूँ,शीरी-फरहाद और रामी-चान्गना के ऐतिहासिक प्रेमरोग भी अपना लेखा-रोग से कहीं फीका है.
--पी०बिहारी 'बेधड़क'
रविवार विशेष-व्यंग- लेखन रोग
Reviewed by Rakesh Singh
on
October 30, 2010
Rating:
Good expression and interesting sattire.
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