 अज़ीब शख़्स था, आँखों में ख़्वाब छोड़ गया
अज़ीब शख़्स था, आँखों में ख़्वाब छोड़ गयावो मेरी मेज़ पे, अपनी किताब छोड़ गया
नज़र मिली तो अचानक झुका के वो नज़रें
मेरे सवाल के कितने जवाब छोड़ गया
उसे पता था, कि तन्हा न रह सकूँगी मैं
वो गुफ़्तगू के लिए, माहताब छोड़ गया
गुमान हो मुझे उसका, मिरे सरापे पर
ये क्या तिलिस्म है, कैसा सराब छोड़ गया
सहर के डूबते तारे की तरह बन 'श्रद्धा'
हरिक दरीचे पे जो आफताब छोड़ गया

अज़ाब – punishment / Pain
सराब- Illusion
आफताब- Sun
--श्रद्धा जैन,सिंगापुर
अज़ीब शख़्स था, आँखों में ख़्वाब छोड़ गया
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January 08, 2011
 
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आपकी कविता सार्थक होती हैं.अगर संभव हो तो वर्तमान परिपेक्ष्य में हिन्दी की दशा पर लेख भी भेजें तो पाठक उससे भी लाभान्वित होंगे.
ReplyDeleteरूद्र नारायण यादव
प्रधान सम्पादक
मधेपुरा टाइम्स