मिथिला और कोसी के क्षेत्र में भ्रातृ द्वितीय और रक्षाबंधन की तरह ही भाई-बहन के प्रेम स्नेह का प्रतीक लोक पर्व सामा चकेवा का प्रचलित है. अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार दीपावली और छठ के खरना के दिन से मिट्टी से सामा चकेवा सहित अन्य प्रतिमाएं बनाकर उसकी शुरुआत की जाती है. यह पर्व पूरे मिथिलांचल में सांस्कृतिक और पारंपरिक तरीके से मनाया जाता है. ऐसी मान्यता है कि इसी दिन सामा और चकेवा को श्राप मुक्त किया गया था।
वहीं, इस पर्व में बहनों के द्वारा मिट्टी के बने सामा, चकेवा, सतभैया, वृंदावन एवं चुगला की मूर्ति और दीया को एक टोकरी में डाल कर चौक, चौराहा और सड़कों पर ओस लगाया जाता है और सामा खेलती हैं. बुजुर्गों का कहना है कि भगवान श्रीकृष्ण की पुत्री सामा थी। उनके भाई का नाम सांब था, सामा के पति चकेवा थे और एक सामंत चुगला था। सामा नित्य दिन फुलवारी में घूमती थी एक दिन चुगला ने श्रीकृष्ण से झूठी चुगली कर दी कि सामा वृंदावन में टहलने के दौरान ऋषियों के साथ घूमती है, जिस पर श्रीकृष्ण ने सामा को पक्षी बनकर वृंदावन में घूमने का श्राप दे दिया। श्राप के कारण ऋषियों को भी पक्षी का रूप धारण करना पड़ा। जिस वक्त भगवान श्रीकृष्ण ने सामा को श्राप दिया उस वक्त उसके पति चकेवा कही बाहर थे, जब वे लौटे तो पत्नी को खोजा, तब उन्हें श्रीकृष्ण के दिए गए श्राप के बारे में पता चला तो सामा के पक्षी बनने के बाद चकेवा ने भगवान विष्णु की तपस्या शुरू कर दी।चकवा की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु प्रकट हुए चकेवा ने पत्नी सामा की पुनः मनुष्य में परिवर्तित करने या खुद को पक्षी बनाने का वर मांगा, लेकिन भगवान विष्णु द्वारा सामा को पुनः मनुष्य नहीं बना सकने की बात कही गई और चकेवा को पक्षी बना दिया। जब सांब को पता चला तो उन्होंने भगवान शिव की तपस्या की भाई सांब का बहन के प्रति अटूट प्रेम देख भगवान शिव ने सामा, चकेवा और ऋषि सब को भी श्राप मुक्त कर दिया। उस दिन से सामा श्राप मुक्त हो गई। इसी मान्यता के साथ बहने सामा-चकेवा का खेल खेलती है और चुगला की मूर्ति बनाकर उसे जलाती है।
कार्तिक पूर्णिमा को खेत में भाई नए धान का चूड़ा और गुड़ बहन को उपहार स्वरूप भेंट कर इस खेल का अंत करते हैं।
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