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चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले छठ पर्व को
चैती छठ व कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता
है। पारिवारिक सुख-समृद्धि तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए यह पर्व मनाया जाता
है। स्त्री और पुरुष समान रूप से इस पर्व को मनाते हैं।
छठ व्रत के सम्बन्ध
में अनेक कथाएँ प्रचलित हैं; उनमें से एक कथा के अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए
में हार गये, तब
श्री कृष्ण द्वारा बताये जाने पर द्रौपदी ने छठ व्रत रखा। तब उनकी मनोकामनाएँ पूरी
हुईं तथा पांडवों को राजपाट वापस मिला। लोक परम्परा के अनुसार सूर्यदेव और छठी मइया
का सम्बन्ध भाई-बहन का है। लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी।
यह पर्व चार दिनों
का है। भैयादूज के तीसरे दिन से यह आरम्भ होता है। पहले दिन सेन्धा नमक,
घी से बना हुआ अरवा चावल और कद्दू की सब्जी प्रसाद के रूप
में ली जाती है। अगले दिन से उपवास आरम्भ होता है। व्रती दिनभर अन्न-जल त्याग कर
शाम करीब ७ बजे से खीर बनाकर, पूजा करने के उपरान्त प्रसाद ग्रहण करते हैं,
जिसे खरना कहते हैं। तीसरे दिन डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य यानी दूध
अर्पण करते हैं। अंतिम दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य चढ़ाते हैं। पूजा में
पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है; लहसून, प्याज वर्जित होता है। जिन घरों में यह पूजा होती है,
वहाँ भक्तिगीत गाये जाते हैं।अंत में लोगो को पूजा का
प्रसाद दिया जाता हैं। छठ उत्सव के केंद्र में छठ व्रत है जो
एक कठिन तपस्या की तरह है। यह छठ व्रत अधिकतर महिलाओं द्वारा किया जाता है;
कुछ पुरुष भी इस व्रत रखते हैं। व्रत रखने वाली महिलाओं को
परवैतिन कहा जाता है। चार दिनों के इस व्रत में व्रति को लगातार उपवास करना होता
है। भोजन के साथ ही सुखद शैय्या का भी त्याग किया जाता है। पर्व के लिए बनाये गये
कमरे में व्रति फर्श पर एक कम्बल या चादर के सहारे ही रात
बिताती हैं। इस उत्सव में शामिल होने वाले लोग नये कपड़े पहनते हैं। जिनमें किसी
प्रकार की सिलाई नहीं की गयी होती है व्रति को ऐसे कपड़े पहनना अनिवार्य होता है।
महिलाएँ साड़ी और पुरुष धोती पहनकर छठ करते हैं। ‘छठ पर्व को शुरू करने के बाद सालों साल तब तक करना होता है, जब तक कि अगली पीढ़ी की किसी विवाहित महिला इसके लिए तैयार
न हो जाए। घर में किसी की मृत्यु हो जाने पर यह पर्व नहीं मनाया जाता है।
ऐसी मान्यता है कि
छठ पर्व पर व्रत करने वाली महिलाओं को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। पुत्र की
चाहत रखने वाली और पुत्र की कुशलता के लिए सामान्य तौर पर महिलाएँ यह व्रत रखती
हैं। पुरुष भी पूरी निष्ठा से अपने मनोवांछित कार्य को सफल होने के लिए व्रत रखते
हैं।लोकपर्व छठ के विभिन्न अवसरों पर जैसे प्रसाद बनाते समय,
खरना के समय, अर्घ्य देने के लिए जाते हुए, अर्घ्य दान के समय और घाट से घर लौटते समय अनेकों सुमधुर और
भक्ति-भाव से पूर्ण लोकगीत गाये जाते हैं।
'केलवा
जे फरेला घवद से, ओह पर सुगा मेड़राय
काँच ही बाँस के
बहंगिया,
बहंगी लचकत जाए'
सेविले चरन तोहार हे
छठी मइया। महिमा तोहर अपार।
उगु न सुरुज देव
भइलो अरग के बेर।
निंदिया के मातल
सुरुज अँखियो न खोले हे।
चार कोना के पोखरवा
हम करेली छठ बरतिया
से उनखे लागी।
इस गीत में एक ऐसे
तोते का जिक्र है जो केले के ऐसे ही एक गुच्छे के पास मंडरा रहा है। तोते को डराया
जाता है कि अगर तुम इस पर चोंच मारोगे तो तुम्हारी शिकायत भगवान सूर्य से कर दी
जाएगी जो तुम्हें नहीं माफ करेंगे, पर फिर भी तोता केले को जूठा कर देता है और सूर्य के कोप
का भागी बनता है। पर उसकी भार्या सुगनी अब क्या करे बेचारी?
कैसे सहे इस वियोग को? अब तो सूर्यदेव उसकी
कोई सहायता नहीं कर सकते, उसने आखिर पूजा की पवित्रता जो नष्ट की है।
ख़ास रिपोर्ट: लोक आस्था का पर्व - छठ
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
October 25, 2017
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