ओपिनियन पोल धोखा है, जाग जाओ मौक़ा है...

कई राजनैतिक पार्टियाँ अपनी छवि सुधारने के लिए देशी-विदेशी एजेंसियों और  कंपनियों को करोड़ों रूपये का ठेका दे रखी हैं,जबकि विकास के मसले पर धन के अभाव का रोना रोती रही हैं। वोट हासिल करने के लिए विज्ञापनों और  रैलियों पर धुआँधार सरकारी और  कारपोरेट घरानों से मिले काले धन ख़र्च किये जा रहे हैं।

हालिया ओपीनियन  पोल/ चुनावी सर्वेक्षण पर हुए 'स्टिंग आपरेशन' के बाद से पूरी बहस इसकी निष्पक्षता, हक़ीक़त, उपयोगिता और ज़रूरत के इर्द-गिर्द होने लगी है। इस बहस में सिर्फ़ विश्लेषक ही नहीं है,पार्टियाँ भी कूद पड़ी हैं। यह सिर्फ़ चुनावी सर्वेक्षण भर का मामला नहीं है,बल्कि इसके पीछे छुपे राजनैतिक मंशा का पड़ताल होना चाहिए । आइए ओपीनियन पोल के 'होल' की बानगी देखते हैं!

सर्वे की बानगी एक :
भारतीय समाज की जटिलताओं को एक क्रूर सच के रूप में देखा जाना चाहिए। हमारा समाज कई तरह के दवाबों और  भय में जीता है। सामंती सामाजिक ढाँचा और  पुरूष सत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था होने की वजह से बहुत जगहों पर स्वतंत्र, निष्पक्ष और  बेबाक़ अभिव्यक्ति, आमतौर पर आपसी संघर्ष में तब्दील हो जाता है। कई बार यह ख़ूनी संघर्ष का रूप भी धारण कर लेता है।
             यहीं कारण है कि बहुतेरे मामलों में और  कई मुद्दों पर लोग खुलकर अपनी राय नहीं देते । इसीलिए अकसर कई मामलों के परिणाम,दिए गये राय के विपरीत निकलते हैं ।
              इस उदाहरण को चुनावी सर्वेंक्षण / ओपीनियन  पोल के साथ जोड़कर भी देखा जा सकता हैं। मान लीजिए आप ऐसे  इलाक़े में सर्वे कर रहे हैं,जहाँ दबंग जातियाँ रहती हैं ।
         वहाँ के लोग किसी पार्टी /उम्मीदवार के पक्ष में खुल कर अपनी राय देते हैं, लेकिन उन्हीं के आसपास रहने वाली कमज़ोर जातियों की राय एक दम अलग होगी । संबंधित मुद्दों पर या तो वो गोलमोल जवाब देंगे या जो देंगे,चुनाव में उस पर खरा नहीं उतरेंगे। लेकिन दिये गये प्राथमिक उत्तर को आधार बनाकर सर्वे एजेंसियाँ आँकड़ा पेश करती हैं । जबकि यह हक़ीक़त से कोसों दूर होता है। यहीं कारण है कि सर्वे एजेंसियों के इतर चुनावी नतीजे एक दम चौंकाने वाले आते हैं।
     अर्थ यह कि खुलकर राय देना मतलब ख़तरे से ख़ाली नहीं है। सहीं बात बोलकर जातीय /ख़ूनी संघर्ष को आमंत्रित करना भी है। अक्सर चुनाव के ठीक बाद/महीनों तक चुनावी रंजीश की ख़बरें पढ़ने को मिलती हैं। हत्या/ आपसी संघर्ष की ख़बरों पर ग़ौर कीजिए । इसीलिए लोग बोलते कुछ और  हैं और  करते कुछ और  हैं।

              यहाँ नोट करने लायक बात यह है कि जिस इलाकों में चुनावी सर्वेक्षण किये गये और  प्राथमिक राय की बदौलत निकाले गये आँकड़ों के आधार पर ओपीनियन  पोल को पब्लिक किया गया। चुनाव पूर्व जिस पार्टी / प्रत्याशी की बढ़त दिखायी गयी,चुनाव बाद उसकी पराजय हुई। ज़ाहिर है,प्राथमिक राय मतदान के समय बदल गये। इसका मतलब यह हुआ कि चुनाव पूर्व सर्वेक्षण,चुनाव बाद ग़लत साबित हुए ।
क्योंकि प्राथमिक राय स्वतंत्र, सटीक, निष्पक्ष, और निर्भीक नहीं थे। डर और  भय के आधार पर दिए गये थे। यह लक्षण कमोबेश भारत के अधिकतर हिस्से में है। ख़ासतौर पर उत्तर भारत में जहाँ का सामाजिक ढाँचा आज भी स्वर्ण सामंती बना हुआ है और  जहाँ सामाजिक जकड़न बेहद संवेदनशील है।
       ऐसे  मामलों में पुलिस मशीनरी भी बहुत निष्पक्ष तरीक़े से काम नहीं करती,इसलिए बहुतेरे लोग झगड़ा मोल नहीं लेना चाहते हैं। इस मामले में शहर और  देहात का अलग-अलग लक्षण है। यहाँ ग्रामीण पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर विश्लेषण किया गया है।

सर्वे की बानगी दो :
चुनाव पूर्व सर्वेक्षण /ओपिनियन पोल में सिर्फ़ राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय एजेंसियाँ भी लगी हुई हैं। आमतौर पर सर्वे एजेंसियों के पास पर्याप्त मात्रा में मैनपावर नहीं होता। इसलिए वो कम खर्चे में आँकड़ा जुटाने के लिए अप्रशिक्षित युवाअों का सहारा लेती हैं।
        उत्तरदाता ऐसे  लोगों पर भरोसा कम करते हैं, उनके मन में अपनी राय या विचार लीक होने का भय होता है। इसलिए भी लोग खुलकर जवाब नहीं देते हैं। चूँकि ये युवा संबंधित सर्वे एजेंसी द्वारा प्रशिक्षित नहीं होते, इसलिए किसी न किसी पार्टी के प्रति इनका आग्रह होता है। यानी कुल मिलाकर सर्वे पूर्वाग्रह के आसपास घूमता नज़र आता है।
    मान लीजिए चुनावी सर्वे के काम में कोई स्थानीय या क्षेत्रीय सर्वेकर्ता शामिल है, उसे पता है फलां पार्टी के समर्थक फलां एरिया में अधिक रहते हैं। यदि वहाँ से प्राथमिक आँकड़ा लिया गया तो ज़ाहिर है,सर्वे का रुझान फलां पार्टी के पक्ष में गया।
     प्राप्त आँकड़ों पर बाज़ीगरी करने वाला बहुत दूर वातानुकूलीत कमरों में बैठा होता है। कई बार उसे ज़मीनी हक़ीक़त की जानकारी नहीं होती, लेकिन निकाले गये परिणाम पूरे चुनाव को प्रभावित करते हैं। यह एक तरह का ख़तरनाक खेल है, जो लम्बे समय से जारी है।

सर्वे की बानगी तीन :
जैसे ही अोपिनियन पोल पब्लिक किया जाता है। प्रिंट और  इलेक्ट्रानिक मीडिया इसे हाथों-हाथ लेते हैं। देखते ही देखते यह सर्वे सनसनी में तब्दील हो जाता है। सर्वे में बढ़त पायी पार्टी तो ख़ुश होती है,लेकिन पिछड़ने वाली पार्टियाँ अपने आप को लड़ाई में दिखाने या बने रहने के लिए विज्ञापनों का सहारा लेती हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया और  प्रिंट मीडिया के पीठ की सवारी कर दर्शकों तक इस खेल को पहुँचाया /दिखाया जाता है।
             कुल मिलाकर इस खेल में सर्वे एजेंसी को फ़ायदा होता है। उसकी पब्लिसिटी होती है। उसे और  काम मिलने लगते हैं। प्रिंट और  इलेक्ट्रानिक मीडिया को धड़ाधड़ विज्ञापन मिलने लगते हैं। चुनावी मौसम में कारपोरेट घरानों को ज़बरदस्त मुनाफ़ा होता है। सर्वे में जिस पार्टी को बढ़त दिखाया गया होता है,वो इसे भजाना शुरू करती है। मतदाताअों को भ्रमित करने या चुनावी हवा बनाने के लिए आँकड़ों का खेल काफ़ी होता है।

सर्वे की बानगी चार :
जब हम कहते हैं कि -
चुनावी सर्वे धोखा है, जाग जाओ मौक़ा है/ ओपीनियन  पोल में होल है, इसमें पूँजीपतियों का रोल है । तो यह तर्क हवाहवाई नहीं है। इसके पीछे एक हक़ीक़त है। एक तर्क है । ओपीनियन  पोल या चुनावी सर्वेक्षण के ज़रिए राजसत्ता / राष्ट्रीय /प्रादेशिक राजनैतिक पार्टियों और  पूँजीपतियों के बीच बने नापाक गठजोड़ के आधार पर यह खेल,खेला जाता है,जिसे भोली-भाली जनता अनभिज्ञ रहती है। जो जागरूक और  चेतनाशील हैं,वो आधुनिक कंदराअों में बंद रहते हैं।
      विशिष्ट सैंपल विधि से चुनावी सर्वेक्षण कर किसी पार्टी के चुनावी जीत की भविष्यवाणी करना । उसे प्रचारित-प्रसारित करना। पूरे चुनावी माहौल को एक ख़ास पार्टी के इर्द-गिर्द ला कर खड़ा कर देना एक तरह से जनता को गुमराह करना भी है। यहीं हो रहा है और  बड़े पैमाने पर हो रहा है।

दरअसल भारत में चुनावी सर्वे; ओपीनियन  पोल हो या एक्ज़िट पोल, बहुत पारदर्शी और  हक़ीक़त के क़रीब नहीं रहे हैं। बीते वर्ष दिल्ली विधान सभा का चुनाव इसकी बानगी भी है और  गवाह भी । याद कीजिए 2004 के चुनाव में 'इंडिया शाइनिंग' को । करोड़ों रूपये शाइनिंग पर ख़र्च हुए, लेकिन निकला क्या ? वहीं 'ढाक के तीन पात...'
    हालाँकि इसका कोई लिखित प्रमाण नहीं है, लेकिन अधिकतर ओपीनियन  पोल किसी ख़ास पार्टी द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से वित्तपोषित होते हैं, जो उसके हित और  बढ़त को प्रदर्शित करते हैं। यह काम कोई एक पार्टी नहीं करती है, बल्कि इसमें बहुत सारी पार्टियाँ लिप्त हैं।

यह एक तरह का कारोबार है,जो चुनावी सीज़न देखकर शुरू किया जाता है। बहुत सारी पार्टियाँ छद्म रूप से एजेंसियों से सहयोग लेती हैं या बहुत सारी एजेंसियाँ ही कुछ पार्टियों के सहयोगी के रूप में काम करती हैं। क़ानूनी तौर पर इन्हें पकड़ा नहीं जाता या क़ानूनी काग़ज़ों से ये मुस्तैद रहती हैं।
    यहीं कारण है कि एक ही चुनाव को लक्ष्य करके हुए, अलग-अलग सर्वे, भिन्न-भिन्न परिणाम दिखाते/दर्शाते हैं। एक करोड़ की आबादी में मुठ्ठी भर लोगों का सैंपल ज़ाहिर है, सही,सटीक और  वैज्ञानिक उत्तर नहीं मिल पाता।
      कोई ज़रूरी नहीं है कि सर्वे में जिनका विचार लिया गया है, वो वोट भी दिए हों या जिसके पक्ष में राय दिये हों उसी को वोट भी दिए हों। यह एक तरह का पूर्वानुमान है,जो अक्सर ग़लत साबित होता रहा है।
   ओपीनियन  पोल से चुनावी नतीजों को की भविष्यवाणी करके मतदाताओं को एक हद तक प्रभावित किया जाता है। उन्हें गुमराह किया जाता है और उनपर एक तरह का मनोवैज्ञानिक दबाव भी बनाया जाता है। ख़ासतौर पर वहाँ, जहाँ का चुनावी माहौल साम्प्रदायिक सेंटीमेंट पर लड़ने और  जीतने की रणनीति बनायी जाती है। इसलिए ओपीनियन  पोल को 'पेड ओपीनियन  पोल' की संज्ञा देना ग़लत न होगा। हालिया ओपीनियन  पोल पर हुए 'स्टिंग अापरेशन' के बाद भले इसकी निष्पक्षता पर सवाल उठने लगी हो,लेकिन यह खेल कभी भरोसेमंद नही रहा, हमेशा इसे संदिग्ध नज़र से देखा-परखा गया।


सर्वे की बानगी पाँच :
2014 के लोकसभा चुनाव पर केन्द्रित ताज़ा चुनावी सर्वे में जिस अंदाज में बीजेपी की बढ़त को दिखाया गया है। इससे कांग्रेस भी बेकला गयी है। इससे लगता है कि सर्वे की दुनिया में एक बड़ा खेल,खेला जा रहा है। यहाँ मामला किसी सर्वे एजेंसी तक सीमित नहीं है,एजेंसी के मुँह से कौन क्या बुलवा रहा है,इसपर सोचने और  निष्पक्ष विश्लेषण करने की जरूरत है ।

इस तरह के सर्वे सच साबित नहीं हो रहे हैं,लिहाज़ा इन पर रोक लगनी चाहिए। सर्वे को आधार बनाकर मुख्यधारा का मीडिया 'सर्वे सनसनी' फैला रहा है। इस तरह के सर्वे को मीडिया ख़बरों का आधार बना रहा है और  बड़े पैमाने पर विज्ञापन का खेल,खेल रहा है। सर्वे आधारित ख़बरें जनता को भ्रमित कर रही हैं। इसके लिए राजनैतिक पार्टियाँ बड़े पैमाने पर मीडिया का सहारा ले रही हैं। यहीं कारण है कि सत्ताधारी पार्टियों से लगायत अन्य पार्टियाँ विज्ञापनों के मद में अकूत धन ख़र्चा कर रही हैं।
      यह धन कहाँ से आ रहा है और  कहाँ जा रहा है। इसका निष्पक्ष और  सार्वजनिक हिसाब-किताब नहीं है। चुनाव आयोग को इस पर भी विचार करना चाहिए । क्योंकि यह पूरा खेल एक ख़ास राजनैतिक मंशा के तहत खेला जा रहा है, जिसका भंडाफोड़ होना चाहिए और इसपर प्रतिबंध लगना चाहिए

सुझाव :
1. भारत निर्वाचन आयोग को ओपीनियन पोल की निष्पक्षता जाँचनी चाहिए ।
2. इसके लिए एक आचार संहिता बनानी चाहिए
3. इसकी सत्यता को 'वॉच' करने के लिए एक निगरानी कमेटी भी बनानी चाहिए ।
4. सर्वे विधि को वैज्ञानिक और  हक़ीक़त केन्द्रित बनाने पर तत्काल पहल करनी चाहिए ।
5. यह भी देखना चाहिए की इस तरह के सर्वे से किसी समुदाय/सम्प्रदाय पर मनोवैज्ञानिक दबाव न बने या पड़े।
6. चुनाव के दौरान या उसके 6 माह पूर्व प्रिंट और  इलेक्ट्रानिक मीडिया में धुआंधार विज्ञापनों पर रोक लगाना चाहिए ।
7. चाहे सत्ताधारी पार्टी हो या कोई अन्य उनके द्वारा विज्ञापनों के मद ख़र्च किये गये धन और  उसके स्रोत को सार्वजनिक करना चाहिए।
8. सरकारों के पास अपनी योजनाओं को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए जो माध्यम हैं,उन्हीं के सहारे जनता तक पहुँचने के लिए प्रयोग होना चाहिए।
9. रैलियों और  चुनावों प्रयोग हो रहे काले पर प्रतिबंध लगना चाहिए और  इसके स्रोतों को सार्वजनिक करना चाहिए .
10. सरकार चाहे जिस पार्टी की हो आख़िरकार धन जो ख़र्च हो रहे हैं वह जनता से वसूला गया हैं,इसलिए उनपर जनता का सीधे हक़ है। किसी सरकार का नहीं। यदि सरकार मनमाने तरीक़े से सरकारी धन को लुटा रही है तो यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया न होकर निरंकुश प्रक्रिया मानकर इसपर प्रतिबंध की दिशा में चुनाव आयोग को निर्णय लेना चाहिए ।


डॉ. रमेश यादव
नई दिल्ली  




(लेखक इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय,नई दिल्ली के पत्रकारिता एवं नवीन मीडिया अध्ययन विद्यापीठ में सहायक प्रोफ़ेसर हैं।)
ओपिनियन पोल धोखा है, जाग जाओ मौक़ा है... ओपिनियन पोल धोखा है, जाग जाओ मौक़ा है... Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on March 04, 2014 Rating: 5

2 comments:

  1. I agree with u totally...everything is sold now...from opinion to emotion...

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  2. pre poll survey scientific hote hain..halanki exit poll zyada sahi hote hain..koi agar isko manipulate kare toh alag bat hai..ismein savarn , poonjiwad ,samantwad jaise bhari shabd dalne ki jaroorat nahi hoti hai..chahe khud kitne bhi qualified, rich aur powerful(samantwadi) ho apne fayde ke liye is tarah ki words ka istemal kiya jata hai..

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