हर प्रत्याशी है खोटा? लोकतंत्र के महापर्व को जरूर मनाएं चाहे आप क्यूं न दबाएँ 'नोटा'

ये डेमोक्रेसी है, इसके बारे में यदि बहुत कुछ पॉजिटिव कहा जा सकता है तो निगेटिव भी कम नहीं. लोकतंत्र एक ऐसा शासनतंत्र है जहाँ दिन-रात एक कर पढ़े लिखे आईएएस-आईपीएस एक अंगूठा छाप जनप्रतिनिधि के अंदर काम करते हैं.
      अब्राहम लिंकन ने जहाँ डेमोक्रेसी को जनता का, जनता के द्वारा जनता के लिए शासन कहा था वहीँ जार्ज बर्नार्ड शॉ ने इसी तर्ज पर कहा था कि ये मूर्खों का, मूर्खों के द्वारा और मूर्खों के लिए शासन है. जाहिर है इस बात में भी बहुत दम है वर्ना बर्नार्ड शॉ की कही बातें आज भी चर्चा में नहीं रहती.
      उदाहरण लीजिए, मैदान में दस प्रत्याशी खड़े हैं और मतदाताओं की संख्यां 100 है. नौ प्रत्याशी को 9-9 वोट मिलते हैं और दशवें को 19 वोट. 19 वोट पाने वाला प्रत्याशी सत्तासीन हो जाता है जबकि 81 लोगों ने इसे वोट नहीं किया था. यानि 81% लोगों की नापसंद पूरे सौ पर राज करता है और फिर आपको मन मसोस कर इन्तजार करना होता है पांच साल का. पर इन्तजार क्या ख़ाक कीजियेगा, आगे भी ऐसा नहीं होगा इसकी क्या गारंटी है. भैया...ये लोकतंत्र है.
      बहुत से लोग अभी चिंता में रहते हैं और उनकी नजर में मैदान में उतरा हुआ कोई प्रत्याशी ढंग का नहीं होता है. कहते हैं किसको वोट दें, चुनाव के समय ये नेता वोटरों के पैर धो कर भी पीने के लिए तैयार रहते हैं, पर एक बार जीत जाएँ तो फिर जनता गई भांड में, नेताजी अपना और अपने चमचों का घर भरने में लग जाते हैं. चुनाव के प्रति ऐसी निगेटिव सोच बहुत से वोटरों को चुनाव के दिन घर में ही बाँध कर रख लेती है. उदासीन ऐसे मतदाताओं के कारण वोट का प्रतिशत भारत में गिरा ही रहता है.
      पर अब चिंता की कोई बात नहीं है. ईवीएम (इलेक्ट्रौनिक वोटिंग मशीन) पर प्रत्याशियों के नाम और चुनाव चिन्ह के अलावे सबसे नीचे एक नया ऑप्शन होगा... ‘इनमें से कोई नहीं (None Of The Above- NOTA) यानि नोटा. भारत में 16वीं लोकसभा चुनाव से इसे प्रयोग में लाया गया है ताकि इस बात का भी पता चल सके कि कितने लोगों को उनके क्षेत्र में उतारे गए प्रत्याशियों में से कोई भी पसंद नहीं है. नोटा वोट की संख्यां यदि अधिक हुई तो ये एक तरह के विभिन्न राजनैतिक दलों को एक बार यह सोचने को विवश कर सकता है कि क्या उनके द्वारा खड़े किये गए प्रत्याशी ‘लायक’ नहीं था. नोटा को शामिल करने के साथ ही भारत दुनियां का ऐसा 14वां देश बन गया है जहाँ राइट टू रिजेक्ट का अधिकार वोटरों को मिल गया है.
          हालाँकि स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सिर्फ ‘राइट टू रिजेक्ट’ ही काफी नहीं है, बहुत से लोगों का मानना है कि ‘राइट टू रिकॉल’ का विकल्प भी होना चाहिए ताकि जीतने के बाद भी यदि प्रत्याशी का काम संतोषप्रद नहीं हो तो उसे बाहर का रास्ता दिखाया जा सके या फिर जिस प्रत्याशी को नोटा से कम वोट मिले तो उसे कम से कम एक निर्धारित समय तक चुनाव लड़ने न दिया जाय.
      सुप्रीम कोर्ट ने जब ‘नोटा’ वोट के जरिये मतदाताओं को ‘राइट टू रिजेक्ट’ देने का फैसला दिया तो फैसले में मुख्य बाते ये थी:
1.      मतदाताओं को चुनाव लड़ रहे सभी उम्मीदवारों को नकारने का अधिकार है.
2.      यह अधिकार संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में समाहित है.
3.    चुनाव आयोग वोटिंग मशीनों और मतपत्रों के अंत में ‘उपरोक्त में से कोई नहीं’ (नोटा) का विकल्प उपलब्ध कराये.
4.     नकारात्मक मत की व्यवस्था से चुनावों में जनता की भागीदारी बढ़ेगी क्योंकि उम्मीदवारों से असंतुष्ट वोटर भी मताधिकार का प्रयोग करना चाहेंगे.
5.      इससे चुनावों में प्रगतिशील परिवर्तन आएगा क्योंकि राजनीतिक दल स्वच्छ छवि वाले उम्मीदवार उतारने के लिए बाध्य होगा.
6.      चुनाव आयोग को नकारात्मक मत का प्रयोग करने वालों की गोपनीयता सुनिश्चित करनी होगी.
   तो हो जाइए तैयार, यदि चुनाव मैदान में उतरा कोई प्रत्याशी आपकी पसंद का है तब तो कोई बात ही नहीं, पर यदि हर किसी से आप असंतुष्ट हैं और हर प्रत्याशी लगता हो खोटा तो जाइए बूथों तक और दबा दीजिए ‘नोटा’, क्योंकि ये देश आपका है और लोकतंत्र को मजबूत बनाना हम सबका दायित्व है.
लोकतंत्र के महापर्व को जरूर मनाएं चाहे आप नोटा ही दबाएँ.
(रिपोर्ट: कुणाल कृष्ण, मधेपुरा)
हर प्रत्याशी है खोटा? लोकतंत्र के महापर्व को जरूर मनाएं चाहे आप क्यूं न दबाएँ 'नोटा' हर प्रत्याशी है खोटा? लोकतंत्र के महापर्व को जरूर मनाएं चाहे आप क्यूं न दबाएँ 'नोटा' Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on November 03, 2015 Rating: 5

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