गत 16 नवम्बर को मीडिया और सरकार से जुड़े लोगों ने भले ही राष्ट्रीय प्रेस दिवस मनाकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान ली हो, पर इससे जुड़े कई सवाल वृहद् समस्या की तरह अब भी उसी तरह कायम हैं, जैसे ये किसी दिवस मनाने से या कार्यक्रम से पहले होते हैं.
प्रथम प्रेस आयोग ने देश में प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा और पत्रकारिता में उच्च आदर्श स्थापित करने के उद्देश्य से प्रेस परिषद की स्थापना की, जिस परिषद ने 16 नवंबर से अपने कार्य की विधिवत शुरुआत की. मीडिया वर्ग की माने तो यह दिन देश में एक स्वतंत्र और जिम्मेवार प्रेस की मौजूदगी का प्रतीक है, लेकिन आमजन के लिए मौजूदा दौर में प्रेस को जिम्मेवार और स्वतंत्र मान पाना लगभग असंभव है.
टीआरपी के खेल की वजह से इलेक्ट्रॉनिक न्यूज़ चैनल्स पर भड़काऊ और आधारविहीन मुद्दों पर होने वाली बेजा बहसों से जहाँ भावनायें तो उद्वेलित होती ही हैं वहीँ मूल मुद्दों से जनता का ध्यान भी भटकता है. मौजूदा समय में वैश्विक चुनौतियों एवं बुराइयों से लड़ने के लिए जनमानस को प्रेरित करने की बजाय मीडिया उन्हें भयभीत भी कर रही है और ये सब बस टीआरपी रेस में ऊपर रहने के लिए किया जा रहा है. इन चैनल्स के लिए निश्चय ही टीआरपी बेहद महत्वपूर्ण है, मगर अगर इससे प्रेस का मूल उद्देश्य ही खतरे में आ जाये तो क्या यह उचित है ? प्रेस के बजट का एक बड़ा हिस्सा विज्ञापनों पर आधारित है. ऐसे में उन विज्ञापनदाताओं के लिए समान या निष्पक्ष व्यवहार भी रख पाना एक बड़ी चुनौती है, जिसमें आज मीडिया कहीं ना कहीं विफल भी है. जाहिर है, इन कारणों से समाज का बड़ा हिस्सा प्रेस से असंतुष्ट है.
ऐसे में समूचे पत्रकारिता जगत में व्यापक सुधारों की आवश्यकता है, जिससे इसपर लग रहे लांछनों को धूमिल कर यह उस स्वर्णिम प्रसिद्धि को पा सके, जिसके लिए यह वांछित है. और गर इस सुधार के लिए कुछ कड़े कदम भी लिए जाते हैं तो पूरा समाज पत्रकारिता जगत के साथ खड़ा रहेगा.
हालांकि इन आरोपों के बावजूद उन सभी पत्रकारों की महती भूमिका से अभी भी इंकार नहीं किया जा सकता है, जिनकी भूमिका वास्तव में व्यक्ति, समाज और राष्ट्र निर्माण के निर्माण में है.
प्रथम प्रेस आयोग ने देश में प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा और पत्रकारिता में उच्च आदर्श स्थापित करने के उद्देश्य से प्रेस परिषद की स्थापना की, जिस परिषद ने 16 नवंबर से अपने कार्य की विधिवत शुरुआत की. मीडिया वर्ग की माने तो यह दिन देश में एक स्वतंत्र और जिम्मेवार प्रेस की मौजूदगी का प्रतीक है, लेकिन आमजन के लिए मौजूदा दौर में प्रेस को जिम्मेवार और स्वतंत्र मान पाना लगभग असंभव है.
टीआरपी के खेल की वजह से इलेक्ट्रॉनिक न्यूज़ चैनल्स पर भड़काऊ और आधारविहीन मुद्दों पर होने वाली बेजा बहसों से जहाँ भावनायें तो उद्वेलित होती ही हैं वहीँ मूल मुद्दों से जनता का ध्यान भी भटकता है. मौजूदा समय में वैश्विक चुनौतियों एवं बुराइयों से लड़ने के लिए जनमानस को प्रेरित करने की बजाय मीडिया उन्हें भयभीत भी कर रही है और ये सब बस टीआरपी रेस में ऊपर रहने के लिए किया जा रहा है. इन चैनल्स के लिए निश्चय ही टीआरपी बेहद महत्वपूर्ण है, मगर अगर इससे प्रेस का मूल उद्देश्य ही खतरे में आ जाये तो क्या यह उचित है ? प्रेस के बजट का एक बड़ा हिस्सा विज्ञापनों पर आधारित है. ऐसे में उन विज्ञापनदाताओं के लिए समान या निष्पक्ष व्यवहार भी रख पाना एक बड़ी चुनौती है, जिसमें आज मीडिया कहीं ना कहीं विफल भी है. जाहिर है, इन कारणों से समाज का बड़ा हिस्सा प्रेस से असंतुष्ट है.
ऐसे में समूचे पत्रकारिता जगत में व्यापक सुधारों की आवश्यकता है, जिससे इसपर लग रहे लांछनों को धूमिल कर यह उस स्वर्णिम प्रसिद्धि को पा सके, जिसके लिए यह वांछित है. और गर इस सुधार के लिए कुछ कड़े कदम भी लिए जाते हैं तो पूरा समाज पत्रकारिता जगत के साथ खड़ा रहेगा.
हालांकि इन आरोपों के बावजूद उन सभी पत्रकारों की महती भूमिका से अभी भी इंकार नहीं किया जा सकता है, जिनकी भूमिका वास्तव में व्यक्ति, समाज और राष्ट्र निर्माण के निर्माण में है.
टीआरपी के रेस में कैसे कायम रह सके मीडिया की विश्वसनीयता?
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
November 23, 2015
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