चुनावी मौसम में एक बात और ख़ास दिखती है. आम लोगों में जहाँ नीरसता घुली संशय की स्थिति विद्यमान रहती है कि क्या करें किसे वोट करेंगे, वहीँ नेताजी लोगों में अनोखा जोश आ जाता है. दरअसल चुनावी मौसम फसल की उस रोपनी की तरह है जिसके बाद ही फसल काटने का समय आता है, यानि यदि रिजल्ट मनोनुकूल रहा तो फिर पांच साल या जिन्दगी भर की मौज.
पर राहें इतनी आसान भी नहीं है. टिकट मिलने की रह में रोड़े भी बहुत हैं. पुराने नेताओं के लिए भी और हाल में पार्टी में शामिल हुए की भी. पुराने नेताओं को डर है कि या तो उनके काम (जो कभी किया ही नहीं) से असंतुष्ट होकर नेतृत्व उनकी इस बार छुट्टी न कर दे. या फिर कोई पैराशूट उम्मीदवार न इतने वर्षों की मेहनत पर पानी फेर दे. संशय की स्थिति नई पार्टी में शामिल नए नेताओं के साथ भी है. चुनाव के पहले यदि पाला बदला है तो मतलब साफ़ है कि या तो पुरानी पार्टी का हाल जर्जर लगा तो ‘उम्मीद पर तो दुनियां टिकी है’, आ गए नए पार्टी में. नारा भी नई पार्टी का जोर-जोर से लगा रहे हैं ताकि नेतृत्व को वे अवसरवादी नहीं बल्कि दिल के साफ़ और समर्पित नेता लगें.
पर दोनों ही स्थिति वाले टिकटार्थियों को शायद ये मालूम नहीं कि पार्टी नेतृत्व समेत वे सभी वरीय नेता जिनकी भूमिका टिकट बांटने में महत्वपूर्ण हो सकती है, के पास शिकवा-शिकायतों का दौर शुरू हो चुका है. आपके पुराने कर्मों और राजों को भी परत दर परत खोला जा रहा है. नेताजी, इत्ता आसान नहीं है इस भीड़, चमचागिरी और सेटिंग के दौर में टिकट ले लेना. पार्टी में ही आपके प्रतिद्वंदियों की संख्यां बहुत है. कई तो ऐसे भी हैं कि उन्हें न हो तो न हो, पर आपका भी पत्ता कटवाने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखेंगे.
पर हम जानते हैं कि उम्मीद का दामन आखिरी सांस तक छोड़ना आपके स्वभाव में नहीं है. तब ही तो आपके समर्थक, जो आपका कस कर खा पी रहे हैं, आपके जबरदस्त फैन हैं. पैसा जमकर रखिए, कहीं चला तो लगा दीजियेगा. अभी भी खर्च करने में चूकिए नहीं. अरे, चुनाव जीत गए तो लागत वापस आने में कितना वक्त ही लगेगा. फिर बाकी के साल तो मालामाल. जनता या विकास कार्यों का क्या है. जब अरबों-खरबों-पद्म-नील लगा कर भी आजादी के 68 सालों बाद भी आपलोगों ने देश की हालत कुछ ज्यादा सुधरने नहीं दिया तो आगे कौन क्या आपका बिगाड़ लेगा?
पर नेता जी, वो तो बाद की बात है. अभी टिकटवा आपको कैसे मिलेगा, इसपर संभल कर दिमाग लगाइए. क्योंकि बड़े धोखे हैं इस राह में...
पर राहें इतनी आसान भी नहीं है. टिकट मिलने की रह में रोड़े भी बहुत हैं. पुराने नेताओं के लिए भी और हाल में पार्टी में शामिल हुए की भी. पुराने नेताओं को डर है कि या तो उनके काम (जो कभी किया ही नहीं) से असंतुष्ट होकर नेतृत्व उनकी इस बार छुट्टी न कर दे. या फिर कोई पैराशूट उम्मीदवार न इतने वर्षों की मेहनत पर पानी फेर दे. संशय की स्थिति नई पार्टी में शामिल नए नेताओं के साथ भी है. चुनाव के पहले यदि पाला बदला है तो मतलब साफ़ है कि या तो पुरानी पार्टी का हाल जर्जर लगा तो ‘उम्मीद पर तो दुनियां टिकी है’, आ गए नए पार्टी में. नारा भी नई पार्टी का जोर-जोर से लगा रहे हैं ताकि नेतृत्व को वे अवसरवादी नहीं बल्कि दिल के साफ़ और समर्पित नेता लगें.
पर दोनों ही स्थिति वाले टिकटार्थियों को शायद ये मालूम नहीं कि पार्टी नेतृत्व समेत वे सभी वरीय नेता जिनकी भूमिका टिकट बांटने में महत्वपूर्ण हो सकती है, के पास शिकवा-शिकायतों का दौर शुरू हो चुका है. आपके पुराने कर्मों और राजों को भी परत दर परत खोला जा रहा है. नेताजी, इत्ता आसान नहीं है इस भीड़, चमचागिरी और सेटिंग के दौर में टिकट ले लेना. पार्टी में ही आपके प्रतिद्वंदियों की संख्यां बहुत है. कई तो ऐसे भी हैं कि उन्हें न हो तो न हो, पर आपका भी पत्ता कटवाने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखेंगे.
पर हम जानते हैं कि उम्मीद का दामन आखिरी सांस तक छोड़ना आपके स्वभाव में नहीं है. तब ही तो आपके समर्थक, जो आपका कस कर खा पी रहे हैं, आपके जबरदस्त फैन हैं. पैसा जमकर रखिए, कहीं चला तो लगा दीजियेगा. अभी भी खर्च करने में चूकिए नहीं. अरे, चुनाव जीत गए तो लागत वापस आने में कितना वक्त ही लगेगा. फिर बाकी के साल तो मालामाल. जनता या विकास कार्यों का क्या है. जब अरबों-खरबों-पद्म-नील लगा कर भी आजादी के 68 सालों बाद भी आपलोगों ने देश की हालत कुछ ज्यादा सुधरने नहीं दिया तो आगे कौन क्या आपका बिगाड़ लेगा?
पर नेता जी, वो तो बाद की बात है. अभी टिकटवा आपको कैसे मिलेगा, इसपर संभल कर दिमाग लगाइए. क्योंकि बड़े धोखे हैं इस राह में...
‘नेताजी धीरे चलना, जरा संभालना, बड़े धोखे हैं इस राह में...’
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
August 27, 2015
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