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अपराधियों
के हौसले बुलंद हो जाने के पीछे सरकार का कमजोर हो जाना एक बड़ा तत्व होता है.
अपराधी चरित्र के लोग तब ही शांत रहते हैं जब उन्हें इस बात का भय होता है कि
अपराध करने के बाद वे पकड़े चले जायेंगे और फिर उनकी जिन्दगी का एक हिस्सा सलाखों
के पीछे कट सकता है. हाल के दिनों में कोसी के इलाके में हुए बड़े अपराध के बाद
अपराधियों को दबोचने में पुलिस कहीं से कोई सफलता नहीं दिखला रही है. ऐसा नहीं है
कि पुलिस कमजोर है. बल्कि ऐसा मानिए कि पहले जहाँ पुलिस को राज्य नेतृत्व का भय
था, वहीं अब सूबे में अराजकता का माहौल उत्पन्न हो रहा है. लगता है कि पुलिस
अपराधियों के हाथों मैनेज हो जा रही है और कई मामलों में जब राजनेताओं की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष शह पुलिस और अपराधियों के गलत मंसूबे को बढ़ावा दे जाती है.
पूर्व
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आज जितने कमजोर दिख रहे हैं, शायद राजनीतिक जीवन के
शुरुआत में भी इनकी हालत ऐसी नहीं रही होगी. जंगल राज का विरोध कर जनता का विश्वास
जीतने वाले ‘सरकार’ कथित जंगल राज का एक हिस्सा
बन चुके हैं. किस्सा कुर्सी का भी अजीब होता है. जबतक भाजपा के साथ
मिलकर मलाई खा
रहे थे, तबतक इनके लिए साम्प्रदायिकता
का अलग अर्थ हुआ करता था. प्रधानमंत्री बनने की चाहत में मुख्यमंत्री की भी कुर्सी
गँवा बैठे और जिस मांझी को ‘रबर स्टाम्प’ समझ कर सत्ता सौंपी थी, वे मोदी का गुणगान कर नीतीश कुमार
की नैया डुबोने चले हैं. सत्ता के मोह में महागठबंधन तो बन गया, पर लोकसभा या
विधान सभा चुनावों में ताकत दिखा सकेंगे कि नहीं, देखना बाकी है.
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और
इनदिनों मीडिया और सोशल मीडिया के चरित्र में आई गिरावट से ‘छपास रोग’ नामक बीमारी से जनप्रतिनधि ही
क्या, कई संगठन तथा आमलोग भी ग्रस्त हो चुके है. लाशों पर राजनीति हो रही है.
धरना-प्रदर्शन-बैठक-सड़कजाम-कैंडल मार्च के पीछे एक बड़ा उद्येश्य अखबारों में अपना
नाम और तस्वीर देखना होता है. यदि उनका बयान कल के अखबारों में प्रकाशित हो जाता
है तो वे अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री मान लेते हैं. अपराध की मूल समस्या जस-की-तस
बनी रह जाती है. यदि पुलिस और प्रशासन का दवाब उनपर न पड़े तो नेताओं और जनप्रतिनिधि
के प्रदर्शनों और बयानबाजी से अपराधियों पर कोई फर्क शायद ही पड़ता है.
नेताओं
का चारित्रिक पतन तब दीखता है जब सत्ताधारी नेता उनके शासन काल में हो रहे अपराधों
का समाधान ढूँढना तो दूर विरोध नहीं भी करते, क्योंकि वे मानते हैं कि ये विपक्ष
का काम है. और वही विपक्ष जब सत्ता में आती है तो उनका चरित्र भी यही हो जाता है.
कुल मिलाकर कोसी में इन दिनों नेता-अपराधी-पुलिस का गठजोड़ बनता दीख रहा है और
जाहिर है जब ऐसी स्थिति बनती है तो फिर आम लोगों के सामने भगवान को याद करने के
अलावे कोई रास्ता नहीं बचता है.
कोशी में बिछ रही लाशें: क्या लाश की राजनीति और ‘छपास रोग’ से निकलेगा समाधान ?
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
January 11, 2015
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