ये प्रेम के कौन से मोड आ गये
जहाँ लम्हे तो गुजर गये
मगर हम बेजुबाँ हो गये
कहानी कहते थे तुम अपनी
और हम बयाँ हो गये
ये बादल मेरी बदहाली के
क्यूँ तेरी पेशानी पर छा गये
इस रूह के उठते धुयें मे
तुम कैसे समा गये
काश!
कोई नश्तर तो चुभता
कुछ लहू तो बहता
कुछ दर्द हुआ होता
तो शायद
तेरा दर्द मेरे दामन से
लिपट गया होता
फिर न यूँ रुसवाइयों
के डेरे होते और
जिस्म के दूसरे छोर पर
तुम मेरे होते
जहाँ रूहों के रोज
नये सवेरे होते
जहाँ लम्हे तो गुजर गये

मगर हम बेजुबाँ हो गये
कहानी कहते थे तुम अपनी
और हम बयाँ हो गये
ये बादल मेरी बदहाली के
क्यूँ तेरी पेशानी पर छा गये
इस रूह के उठते धुयें मे
तुम कैसे समा गये
काश!
कोई नश्तर तो चुभता
कुछ लहू तो बहता
कुछ दर्द हुआ होता
तो शायद

लिपट गया होता
फिर न यूँ रुसवाइयों
के डेरे होते और
जिस्म के दूसरे छोर पर
तुम मेरे होते
जहाँ रूहों के रोज
नये सवेरे होते
मगर ना जाने
ये कैसे प्रेम के
मोड़ आ गए
जो सिर्फ भंवर
में ही समा गए
अब ना तुम हो
ना मैं हूँ
ना भंवर है
बस प्रेम का ये
मोड़ सूखे अलाव
ताप रहा है
वंदना गुप्ता,दिल्ली
ये प्रेम के कौन से मोड आ गये
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
December 25, 2010
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