भ्रष्टाचार: इस वायरस के लिए कोई एंटी-वायरस कारगर क्यों नहीं ?

भ्रष्टाचार एक वाइरस की तरह होता है जो, जिस तरह से कम्प्यूटर की कार्यपद्धति को प्रभावित करता है, ठीक उसी प्रकार यह किसी भी देश के संपूर्ण कामकाजी तंत्र को प्रभावित करता है ।

भ्रष्टाचार ने जीवन के हर क्षेत्र व्यवसाय, प्रशासन, राजनीति, नौकरशाही और सेवाओं में अपना मकड़जाल फैला दिया है । यह हर क्षेत्र और समाज के हर वर्ग में बड़े पैमाने पर है और राजनेताओं में कुछ ज्यादा ही, जो इन सब क्षेत्रों में भ्रष्टाचार को पनपने में मदद करता है । भारत की राजनीति संयुक्त संसदीय प्रतिनिधीय लोकतांत्रिक राज्य के ढाँचे में ढली है, जहाँ पर प्रधानमंत्री राज्य का प्रमुख होता है और बहुदलीय तंत्र होता है । संयुक्त वैधानिक बागडोर सरकार एवं संसद के दोनों सदनों के हाथों में होती है । संविधान के अनुसार भारत एक समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतांत्रिक राज्य है जहाँ पर सरकार जनता के द्वारा चुनी जाती है, मतलब जनता के द्वारा निर्मित और जनता के द्वारा ही संचालित होने वाली व्यवस्था ।

लेकिन मैं कभी-कभी अनायास ही सोच बैठती हूं कि भले ही हमारी शासन प्रणाली लोकतांत्रिक हो लेकिन शासन तो अब भी राजा ही चलाते हैं । देश ने सैकड़ों वर्षों के पश्चात 1947 में अंग्रेजी दासता से या यूं कहें कि हर तरह के दासत्व से आजादी पाई थी । आजादी के समय देश के समस्त नेताओं ने गाँधी जी के 'रामराज्य' के स्वप्न को साकार करने का संकल्प लिया था परंतु आज के समय में भारतीय राजनीति का अपराधीकरण जिस तीव्र गति से बढ़ रहा है इसे देखते हुए हम कह सकते हैं कि हम अपने लक्ष्य से भटक चुके हैं और स्वच्छ राजनीति का स्वप्न भी खो चुके हैं । आज देश में सभी ओर रिश्वतखोरी, कालाबाजारी, जातिवाद व सांप्रदायिकता का जहर फैल रहा है । यहां तक कि राजनेता राजनीति को 'पैतृक संपत्ति माने हुए हैं ।

कुर्सी अथवा पद की लालसा में मनुष्य अपने नैतिक मूल्यों से दूर जा रहा है । वो किसी न किसी तरह अपने अंदर कुर्सी पाने का जुनून पैदा किये हुए है, चाहे वह कैसे भी मिल जाए । सभी दलों ने अपना वर्चस्व स्थापित करने की होड़ में जनमत के मूल्यों को ताक पे रख दिया है । ऐसा लगता है मानो मुद्दे हैं कि पीछे छूटते जा रहे हैं और मूल्यों को ताक पर रखने की राजनीति परवान चढ़ रही है । अगर इन संक्रामक लक्षणों को समाप्त नहीं किया गया तो शायद ही हमारे यहाँ लोगों को लोकतंत्र का मूल्य प्राप्त हो पाये जिससे अब भी समाज का बड़ा तबका महरूम है । हम नागरिकों को चाहिए कि हम खुद आत्म-आकलन करें और यह प्रयास करें कि जो नैतिकता हम स्वार्थ लिप्सा में गवां चुके हैं फिर से आत्मसात करें ।

मेरा मानना है कि लोकतंत्र सिर्फ शासन व्यवस्था नहीं होती बल्कि निजी और सामाजिक जीवन जीने का तरीका होता है । आज हम खुद को अच्छे कह रहे हैं पर हमें खुद सोचना है कि हमारी अच्छाई देश को कहाँ ले जा रही है ? हम कितने अच्छे हैं ? सिर्फ आत्म-विश्लेषण करें क्योंकि आज हमलोगों में इसी सोच की कमी हो गई है बाकी सबकुछ तो हमारे पास हैं ही । मेरा यह मानना है कि लोकतंत्र में हथियार नहीं उठाए जाते और मरने के पहले आदमी को सवाल करने का पूरा हक हासिल है । अपराधी ही सही, लेकिन वह अंधेरे में नहीं मरता । लोकतंत्र में जीवन चमत्कार नहीं रह जाता । वह सामान्य होता है । गणतंत्र में देश की सारी उपलब्धियां सामूहिक होती है तो असफलताओं और कमियों में भी सबका मिला-जुला योगदान ही होता है, इसे हमें मानना चाहिए ।

कहने का तात्पर्य अगर भ्रष्टाचार हमारी असफलता और कमियां है तो हमें मिलकर इसका समाधान खोजना चाहिए । सिर्फ हुकूमत को दोष देकर हम अपनी जिम्मेदारी से बरी नहीं हो सकते । सामाजिक अंधेरे और अलगाव से लड़ने की जिम्मेदारी अब किसी 'दशरथ नंदन' की नहीं, बल्कि हमारी है ।
भ्रष्टाचार: इस वायरस के लिए कोई एंटी-वायरस कारगर क्यों नहीं ? भ्रष्टाचार: इस वायरस के लिए कोई एंटी-वायरस कारगर क्यों नहीं ? Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on July 26, 2017 Rating: 5
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