सक्सेस स्टोरी (1): आठ साल दुकान के बरामदे पर सोये और माँ के गहने बेचकर लगाया था बिजनेस में: कभी दुकान में की थी 250 रूपये महीने पर स्टाफ की नौकरी, आज कोसी के बड़े व्यवसायी में शुमार
“तानेबाने से बुना हुआ है, 
फिर भी आगे बढ़ना है....
जीवन रण में कूद पड़े हैं,
लड़ना है तो लड़ना है......”
कवि किशन वर्मा की इन पंक्तियों को मधेपुरा के एक ऐसे सख्स ने सच कर दिखाया जिनके जीवन में संघर्ष ही संघर्ष रहा पर दशकों के संघर्ष के बाद आज मधेपुरा के इस व्यवसायी का नाम कोसी के बड़े व्यवसायी के रूप में लिया जाता है. आज इनके संघर्ष को नमन करने वालों की कमी नहीं है. कभी 250 रूपये महीने से कलकत्ता के एक दुकान में स्टाफ की नौकरी शुरू करने वाले इस इस सख्स ने जब अपनी दुकान खोली थी तो पूँजी ने नाम पर इनके पास कुछ नहीं था. कर्ज लेकर दुकान खोली तो बेटे के संघर्ष और आँखों से गायब नींद को देखकर माँ ने अपने गहने इन्हें बेचने को दे दिए. भले ही इनके पास पूँजी के रूप में रूपयों की कमी रही हो, पर जो पूँजी इनके पास थी उसकी बदौलत कोई भी भी व्यक्ति असफल हो ही नहीं सकता. मधेपुरा के ‘तुलसी’ वस्त्रालय के मालिक अशोक सोमानी की पूँजी थी- लगन, मेहनत, ईमानदारी और जूनून.
मधेपुरा के कपड़ा व्यवसायी ‘तुलसी’ वस्त्रालय के मालिक अशोक सोमानी की सफलता का सफ़र शून्य से शुरू होकर करोड़ों पर भी भले ही न रूकता हो, पर हकीकत यही है कि ऐसा संघर्ष भी हर किसी के वश की बात भी नहीं है. मधेपुरा जिले के बिहारीगंज में ढाल चन्द्र सोमानी और कृष्णा देवी के घर वर्ष 1960 में जब छोटे पुत्र ने जन्म लिया तो उस समय घर की माली हालत कुछ अच्छी नहीं थी. ढाल चन्द्र सोमानी ने बड़े ही प्यार से बेटे का नाम रखा- अशोक. शायद ये सोचकर कि बेटा घर के सारे शोक और दुःख को हर लेगा या फिर राजा अशोक की तरह प्रतापी बनेगा. पर उस समय शायद किसी को ये पता नहीं था कि बचपन से ही मेधावी रहा ये बालक एक दिन न सिर्फ घर में सम्पन्नता लाएगा बल्कि व्यापार के क्षेत्र में पूरे इलाके को एक नई दिशा भी प्रदान करेगा. आज इनकी सफलता ऐसी है कि मधेपुरा का हर कपड़ा व्यवसायी ‘अशोक’ बनने की ख्वाहिश रखता है.
बात भी नहीं है. मधेपुरा जिले के बिहारीगंज में ढाल चन्द्र सोमानी और कृष्णा देवी के घर वर्ष 1960 में जब छोटे पुत्र ने जन्म लिया तो उस समय घर की माली हालत कुछ अच्छी नहीं थी. ढाल चन्द्र सोमानी ने बड़े ही प्यार से बेटे का नाम रखा- अशोक. शायद ये सोचकर कि बेटा घर के सारे शोक और दुःख को हर लेगा या फिर राजा अशोक की तरह प्रतापी बनेगा. पर उस समय शायद किसी को ये पता नहीं था कि बचपन से ही मेधावी रहा ये बालक एक दिन न सिर्फ घर में सम्पन्नता लाएगा बल्कि व्यापार के क्षेत्र में पूरे इलाके को एक नई दिशा भी प्रदान करेगा. आज इनकी सफलता ऐसी है कि मधेपुरा का हर कपड़ा व्यवसायी ‘अशोक’ बनने की ख्वाहिश रखता है.
संघर्ष से भरा था बचपन: अशोक सोमानी की जिन्दगी बिहारीगंज से ही शुरू होती है जहाँ सरकारी स्कूलों में इन्होने पहली से दशवीं तक की पढ़ाई की. पिता ढाल चन्द्र सोमानी बिहारीगंज में ही ‘पुर्णियां गोला’ में बतौर स्टाफ कार्य कर रहे थे और बमुश्किल परिवार का गुजारा किसी तरह हो रहा था. पर अशोक के मन में बचपन से ही इस बात का जूनून था कि उसे बड़ा आदमी बनना है और खूब पैसे भी कमाने हैं. नतीजा इन्होने मैट्रिक पास करने के बाद वर्ष 1978 में घर छोड़कर कलकत्ता का रूख किया. एक परिचित की मदद से कलकत्ता में इन्हें एक ‘टी गार्डेन मैटेरियल सप्लाई’ कंपनी में मात्र 250 रूपये प्रतिमाह की नौकरी मिली.
मधेपुरा टाइम्स से जीवन के हर पहलू पर बात करते अशोक बताते हैं कि 250 रूपये में 225 रूपये एक मेस में खाने के लिए देने होते थे और बाकी 25 रूपये में सारा खर्च चलाना कठिन था. पर इन्हें काम सीखना था और इसके अलावे कोई दूसरा उपाय भी नजर नहीं आ रहा था. पढ़ाई के प्रति बचपन से लगाव था तो इन्होने वहां भी सुबह चलने वाले कॉलेज में दाखिला लिया और सुबह 6 बजे से 9.30 बजे तक कॉलेज जाते थे और दिन भर कंपनी के लिए काम करते थे.
फिर भी आगे बढ़ना है....
जीवन रण में कूद पड़े हैं,
लड़ना है तो लड़ना है......”
कवि किशन वर्मा की इन पंक्तियों को मधेपुरा के एक ऐसे सख्स ने सच कर दिखाया जिनके जीवन में संघर्ष ही संघर्ष रहा पर दशकों के संघर्ष के बाद आज मधेपुरा के इस व्यवसायी का नाम कोसी के बड़े व्यवसायी के रूप में लिया जाता है. आज इनके संघर्ष को नमन करने वालों की कमी नहीं है. कभी 250 रूपये महीने से कलकत्ता के एक दुकान में स्टाफ की नौकरी शुरू करने वाले इस इस सख्स ने जब अपनी दुकान खोली थी तो पूँजी ने नाम पर इनके पास कुछ नहीं था. कर्ज लेकर दुकान खोली तो बेटे के संघर्ष और आँखों से गायब नींद को देखकर माँ ने अपने गहने इन्हें बेचने को दे दिए. भले ही इनके पास पूँजी के रूप में रूपयों की कमी रही हो, पर जो पूँजी इनके पास थी उसकी बदौलत कोई भी भी व्यक्ति असफल हो ही नहीं सकता. मधेपुरा के ‘तुलसी’ वस्त्रालय के मालिक अशोक सोमानी की पूँजी थी- लगन, मेहनत, ईमानदारी और जूनून.
मधेपुरा के कपड़ा व्यवसायी ‘तुलसी’ वस्त्रालय के मालिक अशोक सोमानी की सफलता का सफ़र शून्य से शुरू होकर करोड़ों पर भी भले ही न रूकता हो, पर हकीकत यही है कि ऐसा संघर्ष भी हर किसी के वश की
 बात भी नहीं है. मधेपुरा जिले के बिहारीगंज में ढाल चन्द्र सोमानी और कृष्णा देवी के घर वर्ष 1960 में जब छोटे पुत्र ने जन्म लिया तो उस समय घर की माली हालत कुछ अच्छी नहीं थी. ढाल चन्द्र सोमानी ने बड़े ही प्यार से बेटे का नाम रखा- अशोक. शायद ये सोचकर कि बेटा घर के सारे शोक और दुःख को हर लेगा या फिर राजा अशोक की तरह प्रतापी बनेगा. पर उस समय शायद किसी को ये पता नहीं था कि बचपन से ही मेधावी रहा ये बालक एक दिन न सिर्फ घर में सम्पन्नता लाएगा बल्कि व्यापार के क्षेत्र में पूरे इलाके को एक नई दिशा भी प्रदान करेगा. आज इनकी सफलता ऐसी है कि मधेपुरा का हर कपड़ा व्यवसायी ‘अशोक’ बनने की ख्वाहिश रखता है.
बात भी नहीं है. मधेपुरा जिले के बिहारीगंज में ढाल चन्द्र सोमानी और कृष्णा देवी के घर वर्ष 1960 में जब छोटे पुत्र ने जन्म लिया तो उस समय घर की माली हालत कुछ अच्छी नहीं थी. ढाल चन्द्र सोमानी ने बड़े ही प्यार से बेटे का नाम रखा- अशोक. शायद ये सोचकर कि बेटा घर के सारे शोक और दुःख को हर लेगा या फिर राजा अशोक की तरह प्रतापी बनेगा. पर उस समय शायद किसी को ये पता नहीं था कि बचपन से ही मेधावी रहा ये बालक एक दिन न सिर्फ घर में सम्पन्नता लाएगा बल्कि व्यापार के क्षेत्र में पूरे इलाके को एक नई दिशा भी प्रदान करेगा. आज इनकी सफलता ऐसी है कि मधेपुरा का हर कपड़ा व्यवसायी ‘अशोक’ बनने की ख्वाहिश रखता है.संघर्ष से भरा था बचपन: अशोक सोमानी की जिन्दगी बिहारीगंज से ही शुरू होती है जहाँ सरकारी स्कूलों में इन्होने पहली से दशवीं तक की पढ़ाई की. पिता ढाल चन्द्र सोमानी बिहारीगंज में ही ‘पुर्णियां गोला’ में बतौर स्टाफ कार्य कर रहे थे और बमुश्किल परिवार का गुजारा किसी तरह हो रहा था. पर अशोक के मन में बचपन से ही इस बात का जूनून था कि उसे बड़ा आदमी बनना है और खूब पैसे भी कमाने हैं. नतीजा इन्होने मैट्रिक पास करने के बाद वर्ष 1978 में घर छोड़कर कलकत्ता का रूख किया. एक परिचित की मदद से कलकत्ता में इन्हें एक ‘टी गार्डेन मैटेरियल सप्लाई’ कंपनी में मात्र 250 रूपये प्रतिमाह की नौकरी मिली.

मधेपुरा टाइम्स से जीवन के हर पहलू पर बात करते अशोक बताते हैं कि 250 रूपये में 225 रूपये एक मेस में खाने के लिए देने होते थे और बाकी 25 रूपये में सारा खर्च चलाना कठिन था. पर इन्हें काम सीखना था और इसके अलावे कोई दूसरा उपाय भी नजर नहीं आ रहा था. पढ़ाई के प्रति बचपन से लगाव था तो इन्होने वहां भी सुबह चलने वाले कॉलेज में दाखिला लिया और सुबह 6 बजे से 9.30 बजे तक कॉलेज जाते थे और दिन भर कंपनी के लिए काम करते थे.
                 कम वेतन मिलने पर भी अशोक सोमानी उस कंपनी के मालिक का एहसान आज भी याद करते हैं, जिनकी बदौलत संघर्ष करने और काम के तरीके सीखने का अवसर मिला. कहते हैं मालिक का नाम भी राजा था और दिल के भी राजा थे. खूब काम सिखाया और यहाँ इनमें अकेले सात टेबुल के काम करने की क्षमता विकसित हुई. कहते हैं उस जमाने में उस कंपनी का टर्न-ऑवर सालाना दस करोड़ का रहा होगा. मालिक अशोक की ईमानदारी और लगन का उदाहरण दूसरे कर्मचारियों के पास भी देने लगे तो इनका मनोबल बढ़ने लगा था. और फिर 1981 में अशोक सोमानी ने बहुत कुछ सोचकर कलकत्ता छोड़ दिया और वापस मधेपुरा आ गए. (क्रमश:)
(अगले अंक में ‘अद्भुत है अशोक के संघर्ष की कहानी: यूं ही कोई सफल नहीं हो जाता’)
(अगले अंक में ‘अद्भुत है अशोक के संघर्ष की कहानी: यूं ही कोई सफल नहीं हो जाता’)
(रिपोर्ट: राकेश सिंह) 
{अगला भाग यहाँ पढ़ सकते हैं: सक्सेस स्टोरी (1): अद्भुत है अशोक के संघर्ष की कहानी: यूं ही कोई सफल नहीं हो जाता’ (अंतिम भाग)}
{अगला भाग यहाँ पढ़ सकते हैं: सक्सेस स्टोरी (1): अद्भुत है अशोक के संघर्ष की कहानी: यूं ही कोई सफल नहीं हो जाता’ (अंतिम भाग)}
सक्सेस स्टोरी (1): आठ साल दुकान के बरामदे पर सोये और माँ के गहने बेचकर लगाया था बिजनेस में: कभी दुकान में की थी 250 रूपये महीने पर स्टाफ की नौकरी, आज कोसी के बड़े व्यवसायी में शुमार 
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