(गतांक से आगे....)
प्रेरणादायक है इस संघर्ष की कहानी: 02 फरवरी 1982 को जब अशोक सोमानी ने मधेपुरा जिला मुख्यालय में दिनेश सर्राफ से दुकान भाड़ा लिया तो इनके पास खुद की एक रूपये की भी पूँजी नहीं थी. बताते हैं कि 25 हजार रूपये इन्होने पिताजी के मित्र झंवर जी से ब्याज पर लिए और 25 हजार बड़े भैया नत्थू जी के एक मित्र से. पर इतना काफी नहीं था. पर बेटे की आँखों की बेचैनी को माँ कृष्णा देवी समझ चुकी थी. उन्होंने अशोक को अपने सारे गहने देकर बेचकर दुकान में लगाने को कहा. ना-नुकूर पर माँ की ममता भारी रही और इन्हें माँ के गहने बेच देने पड़े. दुकान में सामान बढ़ने लगा तो जगह की कमी और सामान की सुरक्षा के लिए ये दुकान के बरामदे पर सोने लगे. नहाने और नित्यक्रिया के लिए इन्होने जीवन सदन का सहारा लिया.
वर्ष 1987 तक इनकी मेहनत और ईमानदारी रंग लाने लगी थी और कुल 13 साल के संघर्ष के बाद अशोक सोमानी की स्थिति बदल चुकी थी, पर स्वभाव न बदला और संघर्ष के दिन याद रहे. वर्ष 1998 में इन्होने मधेपुरा के मेन रोड में अपनी खरीदी जमीन पर दुकान बनाकर शिफ्ट हो गए. तब से अशोक सोमानी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और आज अशोक सोमानी की गिनती मधेपुरा जिले के सबसे बड़े कपड़े के व्यवसायियों में होती है.
कभी स्टाफ के रूप में काम कर चुके अशोक सोमानी के दुकान में आज कई दर्जन स्टाफ काम करते हैं जिन्हें ये न सिर्फ उचित वेतन देते हैं बल्कि उनकी व्यक्तिगत समस्याओं को भी दूर करने का प्रयास करते हैं. अशोक के पास आज तीन मंजिले मकान में जहाँ दिग्जाम, किलर, ड्यूक, लेविस, रैंगलर, रेमंड समेत दर्जनों ब्रांडेड कपड़ों के डीलरशिप हैं वहीँ जल्द ही मेन रोड में अपनी एक अलग जमीन पर ही दो करोड़ से अधिक की लागत से इनका रेमंड का भव्य शो-रूम तैयार हो रहा है. पुराने दिन को याद करते अशोक सोमानी कहते हैं कि कलकत्ता में नौकरी करते समय एक दिन मालिक ने एक लाख रूपये गिनने को दिए थे. उस समय 500 या 1000 के नोट प्रचलन में नहीं थे. सौ के नोटों की गड्डियां गिनते समय उन्होंने सपना देखा था कि काश! उनके पास भी इतने रूपये होते. पर इस शख्स ने आगे बढ़ने के जूनून को इस कदर बढाया कि अब उससे बहुत आगे निकल चुके हैं.
संयमित व्यवहार और दिनचर्या भी है सफलता के लिए अहम: शून्य से शुरू होकर मेहनत और लगन के बदौलत करोड़ों के सफ़र के पीछे कई बातें ध्यान देने वाली हैं या कहा जा सकता है कि सफलता यूं ही नहीं मिल जाती. रात के 2.00 बजे सोने और सुबह 6.30 बजे जगने वाले अशोक सोमानी कहते हैं खुद को हल्का और स्वस्थ रखने के लिए दिन में दो रोटियां शब्जी और सलाद के साथ लेता हूँ और रात में भी इतना ही खाता हूँ. बाकी समय इच्छा होने पर फल आदि का सेवन करता हूँ. अशोक व्यवसाय के लिए लगन के साथ ईमानदारी और सामाजिक रिश्ते बनाने को महत्वपूर्ण मानते हैं. बताते हैं कि दुकान में जल्दीबाजी में रहने वाले कई ग्राहकों के पर्स तथा अन्य
सामान जब छूट जाते हैं तो ये उनके वापस आने तक उसे सुरक्षित रखवा देते हैं. यदि छूटे रूपये लेने कोई ग्राहक नहीं आता है तो उन रूपयों को ये दुर्गा मंदिर के दान पेटी में डलवा देते हैं. कहते हैं वो पैसे मेरे नहीं हैं. दुकान में सीसीटीवी लगे हैं तो किसके सामान छूटे थे, इसका पता भी आसानी से चल जाता है.
महज साढ़े चार घंटा सोने वाले अशोक सोमानी कहते हैं कि सबकी स्थिति अलग-अलग होती है. नक़ल गुणों की होनी चाहिए न कि किसी के खर्च करने और रहनसहन के तरीकों की. लगन के साथ आपका व्यवहार ही ये तय करता है कि आप कितने सफल होंगे. आपके व्यवहार में जैसे ही खराबी आएगी आपका नीचे गिरना शुरू हो जाता है. समाज से आपको रिश्ता रखना होगा और उनके सुख-दुःख का साथी बनिए, देखिये सफलता आपके कदम चूमेगी.
[अगले अंक में किसी और ऐसे ही सख्स की ‘सक्सेस स्टोरी’ जिन्होंने शून्य से सफ़र शुरू किया और आज उनकी हैसियत ऐसे कि हर कोई वैसा ही बनना चाहे.]
(रिपोर्ट: राकेश सिंह)
{पिछला भाग यहाँ पढ़ें: सक्सेस स्टोरी (1): आठ साल दुकान के बरामदे पर सोये और माँ के गहने बेचकर लगाया था बिजनेस में: कभी दुकान में की थी 250 रूपये महीने पर स्टाफ की नौकरी, आज कोसी के बड़े व्यवसायी में शुमार (भाग-1)}
प्रेरणादायक है इस संघर्ष की कहानी: 02 फरवरी 1982 को जब अशोक सोमानी ने मधेपुरा जिला मुख्यालय में दिनेश सर्राफ से दुकान भाड़ा लिया तो इनके पास खुद की एक रूपये की भी पूँजी नहीं थी. बताते हैं कि 25 हजार रूपये इन्होने पिताजी के मित्र झंवर जी से ब्याज पर लिए और 25 हजार बड़े भैया नत्थू जी के एक मित्र से. पर इतना काफी नहीं था. पर बेटे की आँखों की बेचैनी को माँ कृष्णा देवी समझ चुकी थी. उन्होंने अशोक को अपने सारे गहने देकर बेचकर दुकान में लगाने को कहा. ना-नुकूर पर माँ की ममता भारी रही और इन्हें माँ के गहने बेच देने पड़े. दुकान में सामान बढ़ने लगा तो जगह की कमी और सामान की सुरक्षा के लिए ये दुकान के बरामदे पर सोने लगे. नहाने और नित्यक्रिया के लिए इन्होने जीवन सदन का सहारा लिया.
वर्ष 1987 तक इनकी मेहनत और ईमानदारी रंग लाने लगी थी और कुल 13 साल के संघर्ष के बाद अशोक सोमानी की स्थिति बदल चुकी थी, पर स्वभाव न बदला और संघर्ष के दिन याद रहे. वर्ष 1998 में इन्होने मधेपुरा के मेन रोड में अपनी खरीदी जमीन पर दुकान बनाकर शिफ्ट हो गए. तब से अशोक सोमानी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और आज अशोक सोमानी की गिनती मधेपुरा जिले के सबसे बड़े कपड़े के व्यवसायियों में होती है.

संयमित व्यवहार और दिनचर्या भी है सफलता के लिए अहम: शून्य से शुरू होकर मेहनत और लगन के बदौलत करोड़ों के सफ़र के पीछे कई बातें ध्यान देने वाली हैं या कहा जा सकता है कि सफलता यूं ही नहीं मिल जाती. रात के 2.00 बजे सोने और सुबह 6.30 बजे जगने वाले अशोक सोमानी कहते हैं खुद को हल्का और स्वस्थ रखने के लिए दिन में दो रोटियां शब्जी और सलाद के साथ लेता हूँ और रात में भी इतना ही खाता हूँ. बाकी समय इच्छा होने पर फल आदि का सेवन करता हूँ. अशोक व्यवसाय के लिए लगन के साथ ईमानदारी और सामाजिक रिश्ते बनाने को महत्वपूर्ण मानते हैं. बताते हैं कि दुकान में जल्दीबाजी में रहने वाले कई ग्राहकों के पर्स तथा अन्य

महज साढ़े चार घंटा सोने वाले अशोक सोमानी कहते हैं कि सबकी स्थिति अलग-अलग होती है. नक़ल गुणों की होनी चाहिए न कि किसी के खर्च करने और रहनसहन के तरीकों की. लगन के साथ आपका व्यवहार ही ये तय करता है कि आप कितने सफल होंगे. आपके व्यवहार में जैसे ही खराबी आएगी आपका नीचे गिरना शुरू हो जाता है. समाज से आपको रिश्ता रखना होगा और उनके सुख-दुःख का साथी बनिए, देखिये सफलता आपके कदम चूमेगी.
[अगले अंक में किसी और ऐसे ही सख्स की ‘सक्सेस स्टोरी’ जिन्होंने शून्य से सफ़र शुरू किया और आज उनकी हैसियत ऐसे कि हर कोई वैसा ही बनना चाहे.]
(रिपोर्ट: राकेश सिंह)
{पिछला भाग यहाँ पढ़ें: सक्सेस स्टोरी (1): आठ साल दुकान के बरामदे पर सोये और माँ के गहने बेचकर लगाया था बिजनेस में: कभी दुकान में की थी 250 रूपये महीने पर स्टाफ की नौकरी, आज कोसी के बड़े व्यवसायी में शुमार (भाग-1)}
सक्सेस स्टोरी (1): अद्भुत है अशोक के संघर्ष की कहानी: यूं ही कोई सफल नहीं हो जाता’
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
September 05, 2015
Rating:

होटो की हँसी देख ली अंदर नहीं देखा!
ReplyDeleteयारो ने मेरे गम का समंदर नहीं देखा!
अरे कितनी हँसी हैं ये दुनियां!
मर मर के जीने वालो का!
मंजर भी हमने देखा!
बे वक्त चले घर को घर पे देख सब चौक पड़ेंगे!
एक लम्हा ऐसा भी था जब!
(दिन को कभी घर नहीं देखा)
(Safety zone)
very good, best The URL Opener
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