मर्दवादी मीडिया, महिलाएँ और मुद्दे

"जन-संपर्क के साधन (Media of Mass Communication) सूचना (Information) के प्रसार और तर्क-वितर्क (Reasoning) के प्रोत्साहन का उद्देश्य पूरा नहीं करते, बल्कि व्यापारिक हितों (Business Interest) और मनोरंजन (Entertainment) के उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं. यही कारण है कि आज के युग में लोकतंत्र का रूप विकृत हो गया है.." हेबरमास (Habermas) के शब्द. जर्मन दार्शनिक और समाज वैज्ञानिक हेबरमास का सहारा लेकर मौजूदा जन-सम्पर्क के माध्यमों यानी मीडिया और  लोकतंत्र का पड़ताल करें तो उनके विचार सटीक बैठते हैं.   
           याद कीजिए अगस्त 2013 को जब CNN-IBN और  IBN-7 से 300 के क़रीब पत्रकारों को निकाल दिया गया था, तब उस तरह मीडिया में 'तहलका' नहीं मचा, जैसे 'तहलका के तेजपाल' वाले कांड को लेकर मचा...
      ज़ाहिर है, इस बेदख़ली में महिलाएँ भी रही होंगी. उनके सहारे उनका परिवार भी चलता रहा होगा.तब महिलाओं  पर बोलने वालों में कोई नहीं था. उसी तरह जैसे अब बोला जा रहा है. अचानक मीडिया में हुए नैतिक और  चारित्ररिक पतन की उठती लपट सबको दिख रही है और सभी दहाड़ मारकर इसे बुझाने के लिए भर-भर बालटी पानी लेकर दौड़ने लगे हैं. यह अपने तरह का पहला मामला है, जो सार्वजनिक तौर पर दिखा, जो नहीं दिखे, वो दफ़्न हैं, फ़रिश्ते की तरह.
           पूँजीवादी और कारपोरेट संस्कृति से लथपथ देह प्रतियोगिता के ज़रिए उत्पाद से लगायत ख़बर तक बेचने वाले मीडिया संस्थानों के "Open Secret" को कौन नहीं जानता. इस घटना के बाद जिनके-जिनके घर शीशे के हैं वो अपने हाथों में पत्थर लिए एक दूसरे की तरफ शिकारी निगाहों से देख रहे हैं.
         भारत में पूंजीपतियों-कार्पोरेट घरानों, राजसत्ता और नौकरशाही के बीच नापाक गठबंधन शुरू से रहा है. मीडिया में कमोबेश 80 फीसदी हिस्सेदारी देशी-विदेशी पूंजीपतियों की है.जब पूँजी और बाजार में चरित्र, वसूल, सिद्धांत और आदर्श ख़तरे में हैं फिर उसके निवेशकों से नैतिकता की उम्मीद कैसे की जा सकती है, साथ में उसके पोषकों से भी. मौजूदा मीडिया में पूँजी और मुनाफे का वर्चस्व जैसे-जैसे बढ़ा है, वैसे-वैसे नैतिक पतन का ग्राफ़ भी बढ़ा है. तहलका के मुख्य संपादक तरुण तेजपाल से जुड़े मामले को इसी निगाह से देखा जाना चाहिए. हालाँकि लिक से हटकर तहलका के पत्रकारिता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, बावजूद इसके किसी अपराध को मात्र इस कीमत पर माफ़ भी नहीं लिया जा सकता.
कार्पोरेट पत्रकारिता में बहुत सारे मामले दफ़न हैं. खुलकर सामने नहीं आते. अधिकतर महिला पत्रकार और  कर्मी करियर और भविष्य की चिंता में श्रम शोषण, दैहिक शोषण और यौन शोषण के ख़िलाफ़ खुला विद्रोह नहीं कर पातीं, जिस दिन उन्हें निष्पक्ष न्याय की गारंटी मिल जाये, उस दिन देखिएगा आश्चर्य जनक मामले सामने आएंगे. आसाराम-साईं जैसे.
      भारतीय मीडिया में जितने ब्रह्मचर्यवादी (महात्मा गांधी की तरह) प्रयोगवादी हैं, वे सब इन दिनों महिलाओं  की अस्मिता, दैहिक शोषण, यौन शोषण-उत्पीड़न के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए हैं और त्वरित न्याय के लिए चिचिया रहे हैं. मर्दवादी मीडिया में महिलाओं  के पक्ष में एक साथ इतने 'अजान' आप कभी नहीं सुने होंगे. मर्दों का मर्दों के ख़िलाफ़ मंथन. मीडिया में बहस का यह अभियान भारतीय मर्दों का सेक्स और  सेक्सुअल छायावाद के ख़िलाफ़ अपने तरह का बड़ा अभियान जान पड़ता है. इसमें जितने पुरूषनुमा पत्रकार और  बहसबाज विशेषज्ञ शामिल हैं या हो रहे हैं या बयान दे रहे हैं, वो इस छायावाद से अलग दूसरे क़िस्म के 'छायावाद' के प्रवक्ता जान पड़ते हैं ...?
         भूमंडलीकरण, आर्थिक उदारीकरण और  निजीकरण ने मीडिया को अपने आग़ोश में इस क़दर जकड़ा है कि अब प्रिंट मीडिया ख़ासकर टीवी मीडिया में चेहरा/सुन्दरता/आकर्षण, उत्तेजक सेक्स अपील को प्राथमिकता दी जाने लगी है। इस ज़रूरत को उस बाज़ार ने पैदा की है,जिस बाज़ार से मीडिया को पूँजी मुनाफ़े को तौर पर वापस आनी है.
          इस चयन की प्राथमिकता में बहुत कुछ दाँव पर लगता है. निजी पसंद (अपवाद छोड़कर) ना पसंद हावी रहता है.सभी वर्गों की महिलाओं  को बराबरी का अवसर न मिलना इसका एक बड़ा कारण है. बिना किसी भेद-भाव और व्यक्तिगत पसंद और  पैरवी को दरकिनार कर प्रतीभा और  ख़ूबी के आधार पर चयन अभी भी एक यक्ष प्रश्न जैसा है.
           मौजूदा मीडिया संस्थानों को कोई भी पूँजीपति हल जोत कर, खांची-झउआ फेंककर या फरसा-फावड़ा चलाकर या फिर हाड़तोड़ मेहनत करके नहीं चला रहा है. आज के समय में यह सम्भव भी नहीं है. ज़ाहिर है, बेशुमार पूँजी लग रही है. यह श्रम की लूटी हुई पूँजी है. यह पूँजी मुनाफ़ाख़ोर पूँजीपतियों, शराब माफियाओं, घोटालेबाज राजनेताओं, मंत्रियों नौकरशाहों, मुगलों से लगायत अंग्रेज़ों तक की ग़ुलामी और  देसज जनता से लूटी गयी संपत्ति और  श्रम की लूट से अर्जित की गयी है. इसी काली कमाई के खाद-गोबर से मौजूदा मीडिया संस्थान संचालित हो रहे हैं.
देशी-विदेशी पूँजीपतियों-कारपोरेट घरानों, राजे-रजवाड़ों, ज़मींदारों, ठेकेदारों, गोली-बंदूक़ की नोंक पर समानांतर सरकार चलाने और धन-दौलत लूटने वाले गिरोहों की पूँजी से संचित मौजूदा मीडिया वैश्विक बाजार का प्रमोटर है भी है.
टीवी मीडिया के स्क्रीन पर दिखने वाले चेहरों का स्क्रिनिंग कीजिए. इन चेहरों को बाज़ार की ज़रूरतों के हिसाब से सजाया-सँवारा जाता है. आजके मीडिया में चेहरों को सेल करने की होड़ मची हुई है. अंदरखाने में स्क्रीन पर चेहरे आने-दिखाने का खेल 'Open Secret' है. इसके लिए कितनी महिलाओं  के बीच प्रतिस्पर्धा पैदा की जाती. इस प्रतिस्पर्धा के आयोजक और  प्रायोजक पुरूष ही होते हैं. इस प्रतिस्पर्धा की जीत और  हार की कमेंट्री हारी हुई महिला ही कर सकती है. बशर्ते उसे इस कमेंट्री के बाद भी संबंधित संस्थान में आज़ाद इन्ट्री, बेहतर करियर और  सुरक्षित भविष्य की गारंटी मिले.
          आप देखेंगे कि पत्रकारिता में जैसे-जैसे पूँजी की घुसपैठ बढ़ी,बाज़ार ने अपना डेरा डाला वैसे-वैसे 'आसाराम' टाइप का मठ टीवी मीडिया में भी संचालित होने लगा.(अपवाद छोड़कर) यहाँ भी 'गुरू-शिष्य' परम्परा की नर्सरी लगनी शुरू हुई. पत्रकारिता का चोंगा पहनकर बहुतेरे लोग 'चौथे खंभे' का 'गेटकीपर' बनने लगे. जिनका मूल लक्ष्य धंधा करना था. यहाँ भी जो लिखा और  दिखाया जाने लगा, लोग उसी को सच मानने लगे. उसके पीछे का सच आम आदमी में राज-रहस्य ही बना रहा. भूमंडलीकरण, आर्थिक उदारीकरण और प्राइवेटाइजेशन को भारतीय मीडिया ने समाज के लिए वैश्विक संकटमोचक के तौर पर प्रचारित-प्रसारित किया. मीडिया के सहारे बाज़ार हर आदमी को क्रेता-बिक्रेता में बदलने लगा.
मीडिया संस्थान पहले उत्पादों का विज्ञापन करता रहा.बाद में उसे बेचने लगा.इतने से भी उसे संतोष नहीं हुआ.टीवी स्क्रीन पर दिखने वाले मीडिया कर्मियों,ख़ासकर महिलाओं  के 'लुक' को उपभोक्ताओं  के मनोविज्ञान, चाहत और  ज़रूरतों से जोड़ने का खेल शुरू हुआ. ख़बरों और  उत्पादों को टीवी स्क्रीन पर बेचने वाले चेहरे में कोई फ़र्क़ नहीं रहा. डेंटिंग-पेंटिंग से लगायत  वरण तक सब बाज़ार तय करता गया. यहां रोज़गार की मजबूरी ऐसी  थी कि स्वीकार करने के अलावा कोई रास्ता न बचा। यहाँ तक पहुँचने के लिए भी 'बाडी स्क्रीनिंग' का प्रचलन बढ़ा.ब हुत कुछ खोकर, कुछ पाने की मजबूरी का तार जीवन, परिवार, भविष्य और  सुख से जुड़ता गया.
1970 खासकर 1990 के बाद से मीडिया ख़ासकर टीवी मीडिया ने समाज में नैतिकता नहीं बेचा. आदर्श और  सिद्धांत नहीं बेचा.स्पष्ट उद्देश्य और  चरित्र नहीं बेचा.सामाजिक सरोकार नहीं बेचा और  न ही इन सबका समाज में बीजारोपड़ किया. मीडिया ने मॉल  बेचा. उत्पाद बेचा. पुरूषों का शरीर महिलाओं  के लिए और  महिलाओं  की देह पुरूषों के लिए उत्पाद की चासनी लगाकर और उपभोग की वस्तु बनाकर बेचना शुरू किया.
        लोकतंत्र और  समाज को बचाने के लिए भारतीय मीडिया को साम्राज्यवादी पूँजीवादी बाज़ार से मुक्त कराकर 'समाज नियंत्रित और  केन्द्रित' मीडिया संस्थान संचालित करने की ज़रूरत है. अनियंत्रित बाजार और उसके खूंखार मुनाफ़े को रोके वग़ैर,पत्रकारिता की सामाजिक जिम्मेवारी, जवाबदेही, प्रतिबद्धता और सरोकार को जिंदा रखे वग़ैर नैतिक और चारित्रिक पतन को रोकना मुश्किल होगा. हमें समाज द्वारा गढ़े गये तेजपाल से नहीं, बल्कि पूँजीवाद और कारपोरेट के द्वारा पैदे हुए तेजपाल से लड़ना है. लोकतंत्र और  समाज के लिए. जहाँ आदमी और औरत में कोई फ़र्क़ न हो.

  
डॉ रमेश यादव
सहायक प्रोफ़ेसर, इग्नू, 
नई दिल्ली.


मर्दवादी मीडिया, महिलाएँ और मुद्दे मर्दवादी मीडिया, महिलाएँ और मुद्दे Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on December 14, 2013 Rating: 5

1 comment:

  1. कार्पोरेट घरानों के खाद-गोबर से फल-फूल रहा मुख्यधारा के मीडिया में कदम - डर कदम दलदल है.
    आम आदमी का सरोकार बाजार के सरोकार के आगे दम तोड़ रहा है.

    मधेपुरा लोक संचालित जनमाध्यम है,जो जमीनी हकीकत को अभिव्यक्त करता रहा है.

    शुभकामनाओं सहित !

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