जिले में महिलाओं की सच्ची तस्वीर कुछ और ही हैं...

सुकेश राणा/१० मार्च २०११
वादों व नारों से लबरेज शब्दों के मायाजाल में फंसता अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस जिले में धूमधाम से बीत गया.आजादी के छ: दशक व जिले की स्थापना के तीन दशक बीत जाने के बाद जिले की तस्वीर काफी बदली है.बस नहीं बदली तो जिले की महिलाओं की सच्ची तस्वीर.सरकारी अधिकार व रबर स्टाम्प का मूर्तरूप आज भी जिले की महिलाओं की सच्ची तस्वीरें कुछ अलग कहानी सुना रही हैं.१५ लाख की आबादी वाले
इस जिले में महिलाओं की संख्यां लगभग ४५% है जबकि साक्षरता दर २३% यानी ग्रामीण क्षेत्रों में २०% व शहरी क्षेत्रों में ५५% है,वहीं मैनपावर में जिले की महिलाओं की भूमिका मात्र १८% ही है(सभी २००१ की
जनगणना के अनुसार). हालांकि विगत दस वर्षों में जिले की महिलाओं की स्थिति में कुछ सुधार आया है.वहीं घरेलू हिंसा,दहेज-हत्या, अशिक्षा और लिंगभेद समाजवादियों की इस तपोभूमि पर बदस्तूर जारी है.सरकार व उसके प्रशासनिक चेहरे डींगें हांकती रही,ओहदेदार ताकत लफ्फाजी की तरह कमर कस के बोले,"महिलाओं में आत्मनिर्भरता काफी बढ़ी.सरकार द्वारा दिया गया ५०% आरक्षण महिलाओं के लिए क्रांतिकारी बना" ऐसे शब्द और स्थिति शायद सच्ची तस्वीर से छेड़छाड़ जैसी है.
    विदित है कि चुनी गयी ९८% महिला जनप्रतिनिधि आज भी केवल मात्र रबर स्टाम्प हैं.एक-आध को छोड़ दिया जाय तो नागार्जुन का वही राग "गिन लो जी,गिन लो,ठठरी में कई तो हार है" सटीक बैठता है.वर्तमान पंचायती राज व्यवस्था में भी दबे-कुचले वर्ग से आने वाली जनप्रतिनिधि आज भी अपने हिस्से की रौशनी तलाश रही है.अब देखते हैं कि सरकार की योजनाओं का, जो महिलाओं के लिए बना है-आंगनबाडी यानी 'लूटबाड़ी' किसी से छिपी नही है.सुशासन बाबू के राज में आज भी कई ऐसी आंगनबाडी केन्द्र है जो सहायिका व सेविका के पॉकेट का केन्द्र है.जरूरतमंद को केन्द्र का फायदा मिलना तो दूर,महीने में दो-चार दिन खुल ही जाए यही काफी है.बहरहाल,महिलाओं की बदहाली से जुड़े सवाल का जवाब अगले वर्ष तक पुन: महिला दिवस पर लिखने  की कवायद जारी रहेगी.
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