पीएच.डी. के बाद जब मैं दिल्ली छोड़कर पूरी तरह सहरसा में शिफ्ट हो गया तब यूनिवर्सिटी के काम से मधेपुरा आने-जाने के क्रम में यह सवाल फिर से सामने आ खड़ा हुआ। जेएनयू में हमारे सीनियर रहीं और वर्तमान में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक डॉ. स्तुति राय ने एक बार ट्रेन से मधेपुरा में आयोजित सेमिनार में जाने के क्रम में मुझसे पूछा कि – “जैनेन्द्र तुम तो लोकल हो, जरा बताओ कि मधेपुरा स्टेशन के साथ दौरम क्यों जुड़ा है? उस वक्त वह बी.एन. मंडल विश्वविद्यालय के अंतर्गत रमेश झा महिला महाविद्यालय, सहरसा में सहायक प्राध्यापक थीं। मूल रूप से वह उत्तर प्रदेश के गाजीपुर की रहने वाली थीं।
वहीं से फिर तलाश शुरू हुई। लोगों के सुझाव के अनुसार मैंने हरिशंकर श्रीवास्तव 'शलभ', डॉ. भूपेंद्र नारायण मधेपुरी, डॉ. नरेश कुमार, डॉ.सच्चिदानंद यादव, प्रो. विनय कुमार चौधरी आदि द्वारा लिखित स्रोतों को खंगाला और उनसे बातचीत की। जो सार निकला वह मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा में उच्च पदों पर रहे डॉ. भूपेंद्र नारायण 'मधेपुरी' के अनुसार निम्नलिखित है -
"बात 1353 ई. की है, जब दिल्ली के शासक हुआ करते थे फिरोजशाह तुगलक। ओयनवार शासक को इस क्षेत्र की देखभाल का जिम्मा फिरोज शाह ने दे रखा था। आजू-बाजू के सेन शासक और कर्नाट शासक द्वारा पैदा की गई परेशानियों से निपटने हेतु फिरोज शाह तुगलक ने सेना की एक टुकड़ी के साथ एक सूफी संत ‘दौरमशाह मुस्तकीम’ को भी भेजा था। सब कुछ ठीक करने के बाद सेना जब लौटने लगी तो सूफी संत दौरम ने सेनापति से कहा कि यहां की हरियाली मुझे बहुत अच्छी लगती है। आप सहमति दें तो यहीं कुटिया बनाकर रह जाऊं। वे यहीं गौशाला के उत्तर संत अवध कॉलेज के पास रहने लगे और अपने व्यवहार कुशलता के कारण खूब प्रसिद्धि प्राप्त की। वे हिंदू-मुस्लिम सबके प्रिय बन गए। उनकी कुटिया सदियों तक ‘दौरम डीह’ के नाम से जानी जाती रही।
कालांतर में 1910 ई. में जब मधेपुरा में सर्वप्रथम रेल आई तो स्टेशन का नाम मधेपुरा रखा गया। परंतु, मधेपुरा के नाम प्रेषित माल डिब्बा कभी ‘मधुपुर’ तो कभी ‘मधेपुर’ चले जाने के कारण रेलवे द्वारा भेजी गई टीम ने इलाके की जनता की सर्वसम्मत राय से उसी सूफी संत दौरम के नाम को जोड़ने की अनुशंसा की। तब तक दौरम साह मधेपुरा के लिए एक पहचान बन चुके थे। तभी से स्टेशन का नाम ‘दौरम मधेपुरा’ कहा जाने लगा।"
हाल के दिनों में मुझे दो किताबों से पतरघट में एक विश्वविद्यालय के होने का पता चला। इसके ईसा से 600 वर्ष पूर्व होने का दावा किया गया है। मैंने इसकी खोज के क्रम में अन्य प्राचीन विश्वविद्यालयों के बारे में पढ़ना शुरू किया। इस दौरान मुझे पता चला कि नेपाल, तिब्बत आदि पहाड़ी देशों के विद्यार्थी और शिक्षक जब विक्रमशिला विद्यापीठ/ विश्वविद्यालय के लिए घर से चलते थे तो मधेपुरा में रात हो जाती थी। अभी भी आप गूगल मैप में देखेंगे तो नेपाल से विक्रमशिला के ठीक बीच में मधेपुरा पड़ता है। यात्री यहीं रुकते थे और रात में विश्राम करके आगे बढ़ जाते थे।
मेरी यह जानने की भी जिज्ञासा हुई कि मधेपुरा में वह कौन सी जगह रही होगी जहां यात्री विश्राम करते थे। इसका जवाब मिला सच्चिदानंद यादव की किताब 'मधेपुरा बदलती दशा और दिशा' में। उसमें दावा किया गया कि वह जगह वही है जहाँ आजकल संत अवध कीर्ति नारायण डिग्री कॉलेज है। वहीं पर नदी के किनारे एक सुसज्जित गेस्ट हॉउस/धर्मशाला हुआ करता था।
12 वीं शताब्दी में पाल वंश की समाप्ति के बाद जब विक्रमशिला विश्वविद्यालय को राजकीय संरक्षण मिलना बंद हो गया और धीरे-धीरे विश्वविद्यालय का पतन हो गया। यात्रियों का आना-जाना भी बंद हो गया। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि उसी वजह से यह स्थान भी धीरे-धीरे उजड़ गया होगा। आज भी इस कॉलेज प्रांगण में पुरानी ईटों के अवशेष दिखाई पड़ते हैं। संत अवध डिग्री कॉलेज के सामने हनुमान जी के मंदिर के ठीक बगल में इसको देखा जा सकता है। बाद में इसी स्थान पर दौरम शाह मुस्तकीम अलैह ने डेरा डाला। बाद में इस जगह की प्रसिद्धि दौरम शाह की वजह से ही हुई। इसलिए इसे ‘दौरमा डीह’ कहा जाने लगा।
हाल के दिनों में मधेपुरा में दौरम शाह की जयंती भी मनाए जाने लगी। उनकी कोई तस्वीर आज तक प्रकाश में नहीं आई है इसलिए उसके बदले बाबा फरीद की तस्वीर से ही काम चलाया जा रहा है। मेरे मन में दौरम शाह के बारे में और जानने की इच्छा पैदा हुई। किसी ने बताया कि उनकी मजार आज भी मधेपुरा के पूरब में बहने वाली चिलौनी नदी के उस पार है। प्रो. नरेश कुमार, प्रो. विनय कुमार चौधरी और डॉ. फिरोज मंसूरी ने बताया कि उनकी मजार दौरमा डीह के पास वाली नदी के उस पार है। मंसूरी जी ने कहा कि मजार मसूरी टोला में है। अन्य लोगों ने भी बताया कि मजार संत अवध डिग्री कॉलेज के ठीक सामने नदी के उस पार है।
एक दिन यूनिवर्सिटी से मौका पाकर प्रो. मो. अबुल फज़ल, डॉ. विभीषण और मैं उनकी मजार की खोज में निकले। कॉलेज चौक के पेट्रोल पंप के बगल वाली सड़क से आगे बढ़ते हुए बेलहा घाट के पुल को पार किया। कुछ किलोमीटर चलने के बाद एक छोटी सी नहर के किनारे-किनारे सड़क से होते हुए इस्लामपुर पहुँचे। वहाँ स्थानीय लोगों से रास्ता पूछते हुए हम सब मजार तक गए। रास्ता लगभग दो किलोमीटर लंबा था, जहाँ तक कोई सड़क नहीं थी। हमलोगों को खेतों के बीच से गुजरना पड़ा। मजार तक पहुंचने में बहुत उलझन हुई। हमारी ऑफिस के आदेशपाल सईद जी इस्लामपुर के ही रहने वाले हैं, लेकिन उस वक्त हमें यह पता नहीं था, वरना इतनी दिक्कत नहीं हुई होती।
वहाँ मस्जिद के पास हमें अपनी गाड़ी लगानी पड़ी। जिसे हम लोग मजार कह रहे थे वहां स्थानीय लोग उसे दरगाह कह रहे थे। हमलोग पैदल चले। कुछ दूर चलने पर नदी किनारे कुछ आकृति दिखाई दी। खेत में काम कर रहे लोगों से पूछा तो पता चला यही दरगाह है।
इस्लामपुर से दरगाह की ओर बढ़ते समय हल्की वर्षा और तेज़ हवा आरंभ हो गई, तो हमलोग दरगाह के पास ही स्थित एक सामुदायिक भवन में बारिश से बचने हेतु ठहर गए। यह भवन दरगाह के समीप ही था। दरगाह पक्के चबूतरे पर निर्मित था जिसके चारों ओर लोहे की ग्रिल लगी हुई थी। ग्रिल के भीतर चबूतरे पर एक थोड़ा ऊँचा और लम्बा गोलाकार उभरा हुआ भाग है, जिस पर रंग-बिरंगी चादरें चढ़ी हुई थीं। समीपस्थ पाखैर के पेड़ की एक शाखा पर कुछ बड़े-बड़े रंगीन कपड़े बंधे हुए थे।
सामुदायिक भवन में हम लोगों के साथ कुछ अन्य लोग भी बारिश में शरण लिए हुए थे। वे भैंसें चरा रहे थे या चारा लेने आए थे। उनमें किसी को दरगाह के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं थी। कोई इसे पीर बाबा, कोई गुमान शाह तो कोई मस्तान काला बाबा की मजार बता रहा था।
अब बारिश थम गई थी। कुछ और लोग हमें अजनबी समझकर जमा हो गए थे। हमारी भी रुचि और बढ़ती जा रही थी। हम लोगों ने पूछा कि कोई ऐसा व्यक्ति है जो इस दरगाह के बारे में विस्तार से बता सकता है। कुछ लोगों ने एक साथ नारायण साह का नाम लिया। संयोग से साह जी बगल के खेत में काम करते मिल भी गए। उनके साथ उनका बेटा प्रशांत भी था। उन्होंने यह दावा किया किया कि यह दरगाह मेरी जमीन पर है। हमलोगों ने ही इस दरगाह के चारों तरफ चबूतरा बनवाया है। बातचीत शुरू हुई तो प्रशांत के पिताजी नारायण साह ने आगे बताया कि यह इलाका पहले चारों तरफ जंगल से घिरा था। हर साल बाढ़ आती थी। उन्होंने अपने पिताजी शिवाधीन साह के द्वारा बताए गए किस्से को याद करते हुए बताया कि उनके दादा मालिक साह के अनुसार किसी साल की बाढ़ में यह दरगाह कट गया था। जब पानी हटा तो हमारे पूर्वजों ने अनुमान से उसे पुनः स्थापित किया, इसलिए इसका स्थान थोड़ा इधर-उधर हो गया है। आज जहां दरगाह है वह भी उसकी मूल जगह नहीं है। पहले यहाँ जंगल था, हमलोगों का यह कामत हुआ करता था। हम लोग जजहट गोढ़ियारी टोला से यहाँ आए थे। तब चारों तरफ खरहौर का जंगल था। पहले यह जमीन किसी राजपूत की थी।
एक दिन मेरी पत्नी ने रात में दरगाह जाने की इच्छा प्रकट की, परंतु घना जंगल होने के कारण हम वहाँ दरगाह बाबा के पीर तक नहीं पहुँच पाए। अगले दिन हमने जन-मजदूरों को बुलाकर सफाई शुरू करवाई। बार-बार सफाई करनी पड़ती थी, तब मैंने सोचा कि बाबा के लिए एक पक्का चबूतरा बना दिया जाए। लगभग 30-35 हजार रुपये खर्च करके चबूतरा बनवाया।
मधेपुरा शहर के पूरब और इस दरगाह के पश्चिम में बहने वाली चिलौनी नदी की बाढ़ से दरगाह की जगह में परिवर्तन होता रहा। हवलदार त्रिपाठी की किताब 'बिहार की नदियाँ' के अनुसार 1920-30 ईस्वी के आसपास कोसी नदी की एक धारा इसी चिलौनी नदी होकर बहा करती थी।
बाद के दिनों में भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा के प्रोवीसी रहे प्रो. फारूक अली ने चबूतरा के चारों तरफ ग्रिल लगवा दिया ताकि कोई जानवर उसे गंदा ना कर सके। दरगाह के सामने जो सामुदायिक भवन टाइप की ईमारत है उसे स्थानीय मुखिया चांदनी खातून के पति परवेज आलम ने बनवाया है। यह झिटकिया पंचायत के जजहट सबैला गाँव के वार्ड- 11 में पड़ता है।
इस गाँव की भौगोलिक बनावट ऐसी है कि एक नदी के कारण यह गाँव मधेपुरा शहर तथा झिटकिया, सबैला और सिंहेश्वर से कुछ अलग-थलग प्रतीत होता है। यह गाँव मधेपुरा से उत्तर-पूर्व दिशा में और सिंहेश्वर से दक्षिण-पूर्व दिशा में अवस्थित है। गाँव का एक भाग नदी के पश्चिम में और दूसरा भाग पूरब में स्थित है। पश्चिमी भाग मधेपुरा, सबैला और सिंहेश्वर-मधेपुरा एन.एच. 131 के साथ-साथ मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज और विश्वविद्यालय से जुड़ा हुआ है, जबकि नदी के कारण पूरबी भाग कटा हुआ है। मानो नदी ने गाँव को दो टुकड़ों में बाँट दिया हो।
पूर्वी भाग को जोड़ने के लिए एक-दो स्थानों पर पुल अवश्य हैं, किंतु वे इतनी दूरी पर स्थित हैं कि दैनिक आवागमन में लोगों को भारी कठिनाई होती है। मधेपुरा और सिंहेश्वर जैसे नजदीकी स्थानों तक पहुँचने के लिए भी लंबा चक्कर लगाना पड़ता है। ठीक बगल पूरब में इस्लामपुर वार्ड नंबर -15 है। जजहट सबैला पंचायत का 11 वार्ड नदी के पश्चिम में है जबकि चार वार्ड नदी के पूर्व में है।
लोगों ने यह भी बताया कि कभी-कभी यहाँ जलसा भी लगता था। शबे-बारात की रात जलसा का आयोजन होता था। कव्वाली भी होती थी। बहुत दिनों से यह बंद है। एक युवक ने बताया कि उनके एक परिचित युवक निहाल के पिताजी एक बार बीमार पड़े। वे पेशे से शिक्षक थे। बीमार होने के बाद 1995-96 तक वे दरगाह पर ही रहे।
लोगों ने बताया कि एक चर्चित बाबा भी यहां लंबे समय तक रहे। उनको लोग मस्तान काला बाबा कहते थे। वह इस बियाबान में कई सालों तक रहे। लोग यह भी बताते हैं कि उन्होंने किसी का खून करके पुलिस से बचने के लिए इस एकांत को अपना ठिकाना बनाया था। उसने लोगों की भलमनसाहत का फायदा उठाया और अपने आप को बाबा घोषित कर दिया था। उस समय यहाँ खरहौर का घना जंगल था। दिन में भी आने में डर लगता था। चूंकि यहाँ और कोई स्थानीय नहीं रहता था, इसलिए लोग बाबा की बात को मानते थे। लोग तो यहां तक कहते हैं कि उस समय के डीएम एस.पी. सेठ ने मस्तान काला बाबा को दरगाह के विकास के लिए पैसा भी दिया था। बाबा सबको ठगकर चले गए।
यहाँ प्रत्येक बृहस्पतिवार को खस्सी और मुर्गे की बलि दी जाती है। जिनकी मनोकामनाएँ पूरी होती हैं, वे चादर चढ़ाकर बलि अर्पित करते हैं और माथा टेकते हैं। कुछ लोग दरगाह बाबा से जुड़े प्रसंग को लोकगाथा ‘भगैत’ में गाते हैं। हमलोगों को कभी यह सुनने का मौका नहीं मिला लेकिन हो सकता है कि वह मीरा साहब से जुड़ा हो। ऐसा मैं इसलिए कह पा रहा हूँ क्योंकि एक मुस्लिम महिला से जब मैंने पूछा था यह दरगाह किसकी है तो अप्रत्याशित तौर पर उन्होंने कहा था कि यह मीरा साहब की मजार है। हालाँकि बाद में उनके पति ने उन्हें डांट दिया था। कोसी क्षेत्र की भगैत परम्परा में मीरा साहब का प्रसंग आता है।
हमने अनुभव किया कि यदि संत अवध कीर्ति नारायण कॉलेज के निकट ही नदी पर एक पुल बना दिया जाए, तो इस दरगाह तक पहुँचने में सुगमता होगी, साथ ही पूरे गाँव का शहर से सीधा संपर्क स्थापित हो जाएगा। इससे इसका सांस्कृतिक महत्व भी और अधिक बढ़ जाएगा।
एक व्यक्ति पगड़ी बाँधे और लाठी लिए चबूतरे पर बैठे थे और उनकी भैंसें पास ही चर रही थीं। डॉ. विभीषण कुमार ने उनसे यह पूछा कि क्या कभी पुल निर्माण का प्रयास हुआ, तो उन्होंने आत्मविश्वास और व्यंग्य मिश्रित मुस्कान के साथ उत्तर दिया—
“पुल आएल रहे, लेकिन चैल गएले।”
-डॉ.श्रीमंत जैनेन्द्र
सहयोग- डॉ. विभीषण कुमार

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