“साहिलों पे बहने वाले
कभी सुना तो होगा कहीं,
कागज़ों की कश्तियों का
कहीं किनारा होता नहीं
ओ मांझी रे...
अपना किनारा
नदिया की धारा है”
वर्ष 1975 में बनी फिल्म ‘खुशबू’ का यह गाना आज भी इस मायने में प्रासंगिक है कि मांझियों यानि नाविकों की जिन्दगी का किनारा आज भी नहीं है. सरकार और प्रशासन की उदासीनता के कारण ये आज भी दो जून की रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
कोसी के इलाके में हर साल बाढ़ की सम्भावना बनी रहती है और कई निचले इलाकों में तो बढ़ आना तय ही माना जाता है. विकट परिस्थति में प्रशासन के पास भी इसके सिवा कोई उपाय नहीं रहता है कि निजी नावों को नाविक समेत किराया पर लिया जाय. पर किराया? जी हाँ, नाविकों को सरकार से बड़ी शिकायत है. एक तो किराया इनके अनुसार काफी कम होता है और दूसरी बात कि सरकार बाढ़ जैसी भयावह आपदा में भी अन्य मदों में तो काफी खर्च करती है, पर मांझी का दर्द यूं ही रह जाता है.
2008 की बाढ़ या उसके बाद भी मांझियों का अनुभव सरकार से अच्छा नहीं मिला है. कई मांझियों की शिकायत है कि हर नाव पर दो नाविकों की आवश्यकता होती है, पर सरकार सिर्फ एक ही नाविक को मेहनताना देती है. इस बार तो नाविक ये भी मन बना रहे हैं कि बड़ी आपदा में वे सरकार का साथ छोड़ देंगे. पर मानवता का सवाल है, लोगों को तो बचायेंगे ही चाहे नदिया की धारा ही उनका किनारा क्यों न रह जाए...
(रिपोर्ट: शंकर सुमन)
कभी सुना तो होगा कहीं,
कागज़ों की कश्तियों का
कहीं किनारा होता नहीं
ओ मांझी रे...
अपना किनारा
नदिया की धारा है”
वर्ष 1975 में बनी फिल्म ‘खुशबू’ का यह गाना आज भी इस मायने में प्रासंगिक है कि मांझियों यानि नाविकों की जिन्दगी का किनारा आज भी नहीं है. सरकार और प्रशासन की उदासीनता के कारण ये आज भी दो जून की रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
कोसी के इलाके में हर साल बाढ़ की सम्भावना बनी रहती है और कई निचले इलाकों में तो बढ़ आना तय ही माना जाता है. विकट परिस्थति में प्रशासन के पास भी इसके सिवा कोई उपाय नहीं रहता है कि निजी नावों को नाविक समेत किराया पर लिया जाय. पर किराया? जी हाँ, नाविकों को सरकार से बड़ी शिकायत है. एक तो किराया इनके अनुसार काफी कम होता है और दूसरी बात कि सरकार बाढ़ जैसी भयावह आपदा में भी अन्य मदों में तो काफी खर्च करती है, पर मांझी का दर्द यूं ही रह जाता है.
2008 की बाढ़ या उसके बाद भी मांझियों का अनुभव सरकार से अच्छा नहीं मिला है. कई मांझियों की शिकायत है कि हर नाव पर दो नाविकों की आवश्यकता होती है, पर सरकार सिर्फ एक ही नाविक को मेहनताना देती है. इस बार तो नाविक ये भी मन बना रहे हैं कि बड़ी आपदा में वे सरकार का साथ छोड़ देंगे. पर मानवता का सवाल है, लोगों को तो बचायेंगे ही चाहे नदिया की धारा ही उनका किनारा क्यों न रह जाए...
(रिपोर्ट: शंकर सुमन)
ओ मांझी रे...अपना किनारा नदिया की धारा है: नाविकों को है प्रशासन से शिकायत
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
August 21, 2015
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