एक डॉक्टर की आत्मकथा (भाग-3): दवा कंपनियों ने भर दिया मेरे घर में इम्पोर्टेड सामान और कराया विदेश भ्रमण
मेडिकल प्रोफेसन में सबसे अधिक फायदा मुझे दवा
कंपनियों से ही मिला. एमआर मीडिएटर का काम कर रहे थे और ये बात मेरी समझ में आ
चुकी थी कि यदि दवा के बड़े मार्जिन का लाभ उठाना है तो दवा की दूकान भी अपनी ही
होनी चाहिए. मेरी क्लिनिक के बगल में पहले जो व्यक्ति दवा की दूकान चलाता था,
हालांकि पहले उसने मुझसे ही पूछकर दूकान खोला था और उस समय मैं उसकी गरीबी पर तरस
खा गया था. पर आज मुझे लगने लगा कि ‘घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या ?’. मैं अपने को बदलना चाहता था और
अब मुझे लगता था कि हर मनुष्य अपना भाग्य ऊपर से ही लिखाकर लाता है. कोई गरीब है
तो उसकी किस्मत ही ऐसी है. मैनें ग़रीबों पर कोई दया नहीं करने का फैसला ले लिया.
क्लिनिक
के अंदर ही दवा दूकान खुलवाकर एक स्टाफ को बैठा दिया. अब रोगी दवा भी मेरे यहाँ से
ही खरीदते और अब सारा कमीशन मुझे ही आने लगा. शहर में मेरा रेप्यूटेशन बढ़ने लगा और
एक महीने में मैं करीब 30 से 40 लाख रूपये की दवा पेशेंट को लिखने लगा. दवाओं से
हो रही मेरी शुद्ध आमदनी महीने में 15 से 20 लाख तक पहुँच गई और अब मैं कई मामलों
में बेख़ौफ़ हो गया.
इस क्रम
में दो-तीन साधारण कंपनियों का मैं फेवरिट हो गया और फिर धीरे-धीरे गिफ्टों से में
मेरा घर भर गया. दवा कम्पनियाँ मुझे मुंहमांगा सामान देने को तैयार थी और बदले में
मुझे एक टारगेट के मुताबिक दवा लिखना था. ये अलग बात है कि पहले जहाँ एक-दो दिनों
में ही मेरे क्लिनिक से रोगी ठीक होकर चले जाते थे, वहीँ अब घटिया या साधारण दवा
लिखने के कारण
रोगियों को ठीक होने में ज्यादा वक्त लगने लगा. पर मैं उन्हें यह
कहकर बेवकूफ बनाने लगा कि बीमारी जड़ से छुड़ाना है इसलिए समय तो लगेगा ही. और इसका
एक और जबरदस्त फायदा मुझे यह मिलने लगा कि वे जितना अधिक दिन क्लिनिक में रहते
मेरा बिल उतना ज्यादा बनता और आम लोगों भी ये लगता कि डॉक्टर साहब के क्लिनिक में
भीड़ लगी रहती है, मतलब कि ये अच्छे डॉक्टर हैं.
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अब तक
दवा कम्पनियाँ मुझे बड़ी लग्जरी कार, पटना में फ़्लैट तो दे ही चुकी थी, अब वह मेरे
गंजी और मौजे तक का भी इंतजाम करने लगी थी. न्यू ईयर पर जब एक कंपनी ने मुझे
बैंकाक घूमने का ऑफर दिया तो मैं खुद को रोक नहीं सका. हालांकि मुझे मेरे एक
सीनियर डॉक्टर मित्र ने पहले ही समझा दिया था कि बैंकाक जाना होगा तो अकेले
जाइयेगा, फैमिली को साथ मत लीजियेगा. मैंने एमआर को यह समझा दिया कि वे कहेगा कि
एक ही आदमी को जाने का ऑफर है. और फिर विदेश में मुझे इतना सुख मिला कि मैं
गुनगुनाने लगा- ‘आज
मैं ऊपर, आसमान नीचे, आज मैं आगे, जमाना है पीछे....’
(अगले अंक में: क्लिनिक में ही हुई पेशेंट की मौत, मैनेज करने में गंवाने पड़े करीब दस लाख)
(डिस्क्लेमर:
यह रिपोर्ट भले ही वास्तविकता के करीब हो पर
पूरी तरह काल्पनिक है और इसका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई लेना-देना नहीं है.)
(वि०
सं०)
[नोट: गहरी आपत्ति दर्ज कराने के बाद प्रारंभिक रिपोर्ट में मामूली अंश बदल दिए गए हैं.]
[नोट: गहरी आपत्ति दर्ज कराने के बाद प्रारंभिक रिपोर्ट में मामूली अंश बदल दिए गए हैं.]
एक डॉक्टर की आत्मकथा (भाग-3): दवा कंपनियों ने भर दिया मेरे घर में इम्पोर्टेड सामान और कराया विदेश भ्रमण
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
June 21, 2014
Rating:
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