
अपने अभाव समेट कर
कूद पड़ा समन्दर में
यहाँ शहर चुंधिया रहे थे रौशनी से
लोग भी अपने अपने मुर्दा होंठों पर
ज़िन्दगी के गीत सजाये हुवे थे
रात नशे में चूर डगमगा रही थी
मेरे सिरहाने तुम्हारी तस्वीरें
और
उनसे जुडी यादें
तितर बितर फडफडा रही थीं
हर खुली खिड़की की अपनी ही दास्ताँ थी
कहीं ख़ामोशी तो कहीं गहरी उदासी थी
सब गवाह थे आत्महंता सूर्या के
अब भोर आये न आये ,,,,
रात ही रात हम सबकी वाजिब मज़बूरी थी ...
कूद जो पड़ा था लाचार सूर्य ....

हर खुली खिड़की की अपनी ही दास्ताँ थी
कहीं ख़ामोशी तो कहीं गहरी उदासी थी
सब गवाह थे आत्महंता सूर्या के
अब भोर आये न आये ,,,,
रात ही रात हम सबकी वाजिब मज़बूरी थी ...
कूद जो पड़ा था लाचार सूर्य ....
**डॉ सुधा उपाध्याय, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर,
दिल्ली विश्वविद्यालय.
लाचार सूर्य .../// डॉ सुधा उपाध्याय
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
September 30, 2012
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