प्रगति का आधार: ‘भ्रष्टाचार’ (भाग-१)

समझ में नहीं आता कि भ्रष्टाचार की आलोचना करने वालों को कब समझ में आयेगी कि भ्रष्टाचार से ह्रास नहीं, बल्कि विकास होता है.सच पूछा जाय तो समृद्धि में यह विटामिन बी-कॉम्प्लेक्स का काम करता है.
     यदि भ्रष्टाचार से किसी प्रकार का नुकसान होता तो हमारे जनप्रतिनिधि इसे मुद्दा बनाकर जनता-जनार्दन के दुःख-दर्द की दवा जरूर करते.लेकिन वे चुप हैं तो निश्चय ही भ्रष्टाचार महज सदाचार का विपरीतार्थक शब्द है जो केवल पाठ्य-पुस्तक में अनुशंसित व्याकरण नामक पुस्तक तक ही सीमित है.उसका व्यावहारिक जीवन से कोई सम्बन्ध-सरोकार नहीं है.
  जब कभी राजनैतिक विरोधियों के द्वारा भ्रष्टाचार के विरूद्ध अनशन-धरना-प्रदर्शन का आयोजन होता है तो उसका उद्येश्य महज वर्तमान सरकार को लंगड़ी मारकर अपना राजनैतिक कैरियर सुधारना होता है.
  किसी जिन्दा सरकार को शहीद करने हेतु कर्तव्यनिष्ठ माननीय सदस्यों को उपहार में पद, कार, कोठी या लाख-करोड़ का लालच दिया जाना कितना सुखद प्रस्ताव है?यह विकास नहीं तो और क्या है?इसे कोई भ्रष्टाचार कहे तो उसकी दुर्बुद्धि पर तरस आती है.भगवान ऐसे भले मानुष को खैराती सदबुद्धि दे.आखिर उन धैर्यवान प्रतिनिधियों के धैर्य की परीक्षा कबतक होती रहेगी?
    मंत्रियों की राजसी ठाठ-बाट देखकर उनके ह्रदय में ईर्ष्या की चिनगारी तो फूटेगी ही.भला, उनकी प्रगति की बारी आये तो कोई उनपर उंगली क्यों उठाये?
   कितनी तपस्या करनी पड़ती है है बेचारे को चुनाव जीतकर विधानसभा-लोकसभा तक पहुँचने में? बपौती तक को गिरवी रखनी पड़ती है.एक-एक वोट की खातिर नोटों की बरसात कर देते हैं.इसी दिन के लिए तो!
     तथाकथित असफल और असमर्थ लोग भ्रष्टाचार का विश्लेषण कर अर्थ बतलाने-समझाने में व्यर्थ जीवन बिताते हैं.यदि कभी उन्हें अनुकूल अवसर मिल जाए तो शायद वे ही भ्रष्टाचार को कदाचार की संज्ञा देकर कद के अनुरूप आचरण मान बैठेंगे न कि भ्रष्ट आचरण.
     मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के अनन्य उपासक गोस्वामी तुलसीदास कोई टुच्चा मनीषी तो थे नहीं.उन्होंने अपनी कालजयी रचना रामचरितमानस में पूरी ईमानदारी से साफ़-साफ़ शब्दों में लिखा है-समरथ के नहीं दोष गुसाईं. आदमी जबतक खाली हाथ रहता है तभी तक भय नामक नाचीज कमजोरी उसे सताती है फिर हथियार मिल जाने पर उससे डर भी डरने लगता है.
    कुछ नासमझ किस्म के लोग सरकारी राशि के गबन-घोटाले और हवाला का हवाला देकर जनता की किस्मत और बेबसी का का रोना रोया करते हैं.भले आदमी भूल जाते हैं कि जब जनता स्वयं सरकार को पैदा करने की मशीन है तो खुद अपनी चिंता करने की उसे जरूरत ही क्या है?फिर जनता की चिंता करने वाले अपनी उर्जा खर्च खर्च करने की बेवकूफी क्यों करे? भला, ठेके पर कहीं चिंता की जाती है! तभी तो आज अन्ना का अनुरोध और स्वामी रामदेव का क्रोध नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित हो रहा है.(क्रमश:)

--पी० बिहारी बेधड़क, मधेपुरा 
प्रगति का आधार: ‘भ्रष्टाचार’ (भाग-१) प्रगति का आधार: ‘भ्रष्टाचार’ (भाग-१) Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on December 07, 2011 Rating: 5

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