
समटे हुए है अपने अन्दर,
ये आईना ....
मंजर खुशियों के कम नहीं
पहलुओं में इनके,
फिर क्यूँ इतनी चुप्पी लिए
दीवारों पे टंगी है,
ये आईना ....
ज़माने ने तो अपने दिलों का
नाता तेरे साथ जोड़ दिया,
जब भी टूटा दिल उसका
तो "शीशा-ए- टुकड़ों" का नाम दिया,
मिली इतनी अहद जब दुनिया से
फिर क्यूँ शांत है,
ये आईना ....

जब भी रूह ब रूह हुए हम आपके
खुद को ही पाया तेरे चेहरे में,
भुला कर तुम अपने वजूद को
हमको रखा फिर अपने साये में,
इतनी सिद्दत है जब दूसरों से
फिर क्यूँ इतना तन्हा है,
ये आईना ....
ना जाने ऐसे कितने सवाल
दबा रखा हूँ मैं खुद में,
ओर वो है कि अपनी ज़िंदगी
लुटा रही है एक खनक में,
इतनी राज है जब उनकी ज़िंदगी में
फिर क्यूँ बेराजदार है,
ये आईना ....
कितनी दर्द कितनी ख़ामोशी
समटे हुए है अपने अन्दर,
ये आईना ....
--अजय ठाकुर,नई दिल्ली
ये आईना ....!!
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
December 14, 2011
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