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दूर थी, मंजिल मगर पास किनारा था,
ख्वाब तो थे ज़िंदगी के बहुत
मगर उनका नहीं कोई बसेरा था ,
गम की सतहों पर आशाओं का सवेरा था !!
..........
न जाने क्यूँ इतनी बोझिल हो गई,
ज़िंदगी अपने ही ख्यालों में,
शायद फुर्सत से ये बातें करूँगा,
अपने जेहन से सवालों में,
अब तो हर वक़्त जलता रहता हूँ
घनी पेड़ की छाँव में,
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किसी भी फिजाओं में,
गम की सतहों पर आशाओं का सवेरा था,
दूर थी, मंजिल मगर पास किनारा था !!
........
लगता हैं हम जैसों की
ज़िंदगी का कोई पहलू न होगा,
बयाँ करने के किये पन्ने तो होंगे,
मगर पढने के कोई मज्बुल न होगा,
अल्फाजों के फूल गिरेंगे जरुर राहों पर,
जब काटों से जख्मी पेड़ न होगा,
हंस लो यारों मुझपे मगर
हमको है ये यकीं,
भँवर तो होंगे ज़िंदगी में बहुत मगर,
एकदिन उनपे कोई मृगतृष्णा न होगा !
गम की सतहों पर आशों का सवेरा था,
दूर थी, मंजिल मगर पास किनारा था !!
--अजय ठाकुर,नई दिल्ली
आशाओं का सवेरा !!
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
October 02, 2011
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