स्त्री देह ही नहीं ...
जहाँ प्यार ख्याल एहसासों की तहरीर होती है
लिखे होते हैं कुछ अनगाये गीत
लहराती हैं कुछ कोपलें
बया के घोसले सा होता है एक ख्याली घर
जिसमें सपनों के खिलौने होते हैं
ना तोड़ो उस खिलौने को
तो सामर्थ्य अदभुत होता है
धरती आकाश एक करने की क्षमता होती है ...
देह तो आधार है विश्वास का
इसमें सृष्टि का प्रकृत गान होता है
....................
माँग, ज़रूरत तो दोनों की है
और पूर्णता का आभास
छिनने में नहीं
आपसी समर्पण में है
द्वैत से अद्वैत की यात्रा आपसी स्वीकृति में है
देह तीर्थ है
सिर्फ आस्था ही हर मनोकामना पूरी करती है !...
--रश्मि प्रभा,पटना
देह से परे
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
July 13, 2011
Rating:

एक अत्यंत ही सुन्दर और अर्थपूर्ण कविता...रश्मिप्रभा जी की बातों में दम है.
ReplyDeleteपूर्णता का आभास
ReplyDeleteछिनने में नहीं
आपसी समर्पण में है
गहन भावों का समावेश इस अभिव्यक्ति में
एक सच बयां करती प्रस्तुति ।
A good poem, reflecting the poet's concern for sincere love in which soul matters as much as the body, which is compared to a pilgrimage.
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