आह ! ये ‘चुनाव’,
है सचमुच एक तनाव.
लोकतंत्र का दुखदर्द है.
पांच बरस पर एक बार नही,
पांच बार आ सकते हैं.
सुरसा सा मुंह बा सकते हैं,
कितने को खा सकते हैं.
चुनाव का समय जब आता है,
शहर भाषण मय होता है.
कुर्सी से मंत्री की शादी होती है,
निर्धनों की रोटी आधी होती है.
जाति-पाति-धर्म की आंच पर,
नुच जाता मांस जनता का,
केवल हड्डी फेंकी जाती है.
झोली फैलाते हैं दर-दर,
एक अदद वोट की खातिर,
सज्जन कहीं नजर न आते,
टकराते शातिर-ही-शातिर.
प्रचार कार्य में जुटे कार्यकर्ता,
करते हैं मेढक सा टर्र-टर्र.
कभी धमकाते,कभी फुसलाते,
लगाते गली-गली का चक्कर.
संविधान अब बना खिलौना,
सरकार बनाना बहाना है.
असली बात समझो भाई,
“राज्य-कोष” हथियाना है.
--पी० बिहारी ‘बेधड़क’
चुनाव का चक्कर
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
May 12, 2011
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