रूद्र नारायण यादव/१३ मार्च २०११
जिले का एक छोटा सा प्रखंड सिंघेश्वर और यहाँ लगता बिहार का प्रसिद्ध मेला, सिंघेश्वर मेला.जानने वाली बात है कि इस मेले में आस-पास के क्षेत्र के अलावे दूर-दूर से भी लोग आते हैं.दूर-दूर से आने वालों में बहुत स परिवार ऐसे भी हैं जो गरीब तबकों से ताल्लुकात रखते हैं.भगवान के प्रति अटूट आस्था उन्हें यहाँ खींच लाती है.उनके आने में कुछ समस्याएं भी हैं.सोने को तो वे मंदिर परिसर में सोकर रात बिता लेते हैं पर खाने की समस्या बड़ी है.उनकी आर्थिक स्थिति
इतनी अच्छी नहीं कि वे होटल का महंगा खाना खा सके.पर फिर भी वे मेले आते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि घुटर दास और सरस्वती देवी का परिवार उनकी राह देख रहा होगा.
सिंघेश्वर मेले में चार-पांच परिवार ऐसे हैं जो करीब २५ वर्षों से अपने पुश्तैनी कार्य को संभाले हैं.बाहर से आने वाले गरीब लोगों का हुजूम इनके यहाँ खाना खाता है.घुटर और सरस्वती ने सड़क के किनारे ही
इतनी अच्छी नहीं कि वे होटल का महंगा खाना खा सके.पर फिर भी वे मेले आते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि घुटर दास और सरस्वती देवी का परिवार उनकी राह देख रहा होगा.
सिंघेश्वर मेले में चार-पांच परिवार ऐसे हैं जो करीब २५ वर्षों से अपने पुश्तैनी कार्य को संभाले हैं.बाहर से आने वाले गरीब लोगों का हुजूम इनके यहाँ खाना खाता है.घुटर और सरस्वती ने सड़क के किनारे ही

कैसे चलता है पांच रूपये प्रति व्यक्ति में सालों भर इनका परिवार? सरस्वती बताती हैं कि बाक़ी दिन हमलोग मिहनत-मजदूरी कर के पेट चलाते हैं.इस समय हम मेले में ये सोचकर आ जाते हैं कि हमारे नही रहने से हजारों लोगों को यदि परेशानी हो जायेगी तो फिर ये मेला आना छोड़ देंगे.इनकी सेवा करने से शायद हम पुण्य का भागी बन सकें.मधुबनी से आये रामविलास भी इनकी बातों का समर्थन करते कहते हैं कि ये लोग अगर इस काम को बंद कर दें तो शायद हम न आ सके.
दरअसल ग्रामीण मेले की सार्थकता घुटर और सरस्वती जैसे लोगों से ही जिन्दा है.संपन्न लोग तो चमचमाती गाड़ी से आते हैं,होटल में खाना खाते हैं और गुलछर्रे उड़ाकर चले जाते है.पर उन्हें पता नही है कि मेले में गरीबों की भीड़ कायम रहने के पीछे बात कुछ और ही होती है और सेवा-भाव को अपना परम धर्म समझने वाले सरस्वती और घुटर आज भी समाज सदभाव को जिन्दा रखे हुए हैं.
ग्रामीण मेले की सार्थकता जिन्दा है इन्हीं से
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
March 13, 2011
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