हाँ,
जो चाहे सजा दे देना
जिस्म की बंदिशों से
रूह को आजाद कर देना
हंस कर सह जाऊँगा
गीला ना कोई
लब पर लाऊंगा
नही चाहता कोई छुड़ाए
उस हथकड़ी से
नही कोई चाहत बाक़ी अब
सिवाय इस एक चाह के
बार बार एक ही
गुनाह करना चाहता हूँ
और हर बार एक ही
सजा पाना चाहता हूँ
हाँ,सच मैं
आजाद नही होना चाहता
जकड़े रखना बंधन में
अब बंधन युक्त कैदी का
जीवन जीना चाहता हूँ
बहुत आकाश नाप लिया
परवाजों से
अब उड़ने की चाहत नहीं
अब मैं टहरना चाहता हूँ
बहुत दौड़ लिया जिंदगी के
अंधे गलियारों में
अब जी भरकर जीना चाहता हूँ
हाँ,मैं एक बार फिर
‘प्यार’ करने का
गुनाह करना चाहता हूँ
प्रेम की हथकड़ी से
ना आजाद होना चाहता हूँ
उसकी कशिश से ना
मुक्त होना चाहता हूँ
और ये गुनाह मैं
हर जन्म,हर युग में
बार-बार करना चाहता हूँ
वंदना गुप्ता,दिल्ली
हाँ, मैंने गुनाह किया
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
December 18, 2010
Rating:

राकेश जी,
ReplyDeleteमधेपुरा टाइम्स पर मेरी रचना को जगह देने के लिये आपकी हार्दिक आभारी हूँ।
वंदना जी,
ReplyDeleteये मेरा सौभाग्य है कि मेरे पाठकों को इतनी बेहतरीन कविताएं मधेपुरा टाइम्स के माध्यम से मिल रही हैं.आपका तहे दिल से शुक्रिया.