
चाह में खुद को जलाती रही
वो सुख तो कभी था ही नहीं.
बेसबब उन पथरीली राहों पर चलकर
खुद को ज़ख़्मी बनाती रही,
कभी गिरती कभी सम्हल जाती
सम्हल कर चलती तो कभी लड़खड़ाती
लड़खड़ाते कदमो को देख लोग मुस्कराते
कोई कहता शराबी तो कई पागल बुलाते
पर कोई न होता जो मुझे सम्हाल पाता
गिरे देखकर अपना हाथ बढ़ाता
जिसकी तलाश में खुद को गिराती रही
वो सुख तो कभी था ही नहीं.
अधूरे एहसास के साथ मैं चलती रही,
मिलन की आस लिए कल – कल बहती रही
कभी किसी झील, तो कभी नहर से मिली ,
कभी झरने में मिलकर, संग संग गिरी
मिला न वो,जो मुझमे मिलकर मुझे संवारे
मेरे रूप का श्रगार कर इसे और निखारे
जिसके लिए अपने वजूद को मिटाती रही
वो सुख तो कभी था ही नहीं.
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वो सुख तो कभी था ही नहीं
Reviewed by Rakesh Singh
on
November 20, 2010
Rating:

जिसकी तलाश मुझे भटकाती रही,
ReplyDeleteचाह में खुद को जलाती रही
वो सुख तो कभी था ही नहीं.
श्रद्धा जी बहुत अच्छी शायरा हैं...उनका कलाम यहां देखकर बहुत अच्छा लगा...शुभकामनाएं
सुन्दर
ReplyDeleteअदभुत बात
ReplyDeleteसबकी अपनी अपनी समझ है
bahut khoobasoorat nazm hai shraddha
ReplyDeleteजिसकी तलाश में खुद को गिराती रही
वो सुख तो कभी था ही नहीं.
kyaa bat hai!
wo sukh to kabhi tha hi nahin....... bahut khoob
ReplyDeleteawesome___________________
ReplyDeletevery nice..
ReplyDeletebehtareen!! bahut achchha aur bahut sachcha.
ReplyDeletenice1..........
ReplyDeleteAap sabhi ki bahut bahut abhaari hun jo aapne shuruwati dour mein likhi gayi kavita jo mere man ke bahut qareeb hai,padhi aur sarahi ..
ReplyDeleteRakesh ji ka bhi shukriya jo unhone mujhe is layak samjha aur prakashit kiya
very perfect,or iski tariph ma mara pass koye alphase nahi hai.
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