रविवार विशेष- कविता- दहेज़ एक सामाजिक बुराई


दहेज़ का लालची समाज है हमारा,
बेटे को बेच कर इज्जत है कमाता,
दहेज़ के पैसे से बंगला बनाकर,
लोभी इंसान अमीर कहलाता,
बेटे के जन्म पे खुश हो जाता,
बेटी जन्मे तो शोक है मनाता,
दहेज के लिए बेटे को अफसर बनाता,
दहेज़ न मिले तो बहू  को जलाता, 
अपनी इज्जत को खाक में मिलाता,
बेटे को बेचने से फायदा क्या है,
अपनी इज्जत गवांने से फायदा क्या है, 
मेहनत के पैसे से इज्जत बनाओ, 
छोड़ो ये रस्मो रिवाज,
समाज में अपनी अलग पहचान बनाओ,
सामाजिक बुराइयों को जड से मिटाके,
विकसित और प्यारा देश बनाओ |
  --
पल्लवी राय,मधेपुरा
रविवार विशेष- कविता- दहेज़ एक सामाजिक बुराई रविवार विशेष- कविता- दहेज़ एक सामाजिक बुराई Reviewed by Rakesh Singh on November 14, 2010 Rating: 5

4 comments:

  1. thanks coments so good.
    hemant

    ReplyDelete
  2. poems could be the effective tool to eradicate such a heinous crime..thanks for writing.

    ReplyDelete
  3. a lot of thanks to u both..............

    ReplyDelete
  4. दहेज निश्चित ही सबसे ज़्यादा घृणित सामाजिक रोग है जिसका इलाज केवल नौजवानों और नवयुवतियों के हाथ में है। आज सबसे ज़्यादा लोलुप तो यही हैं जो बिना कुछ किए ही अपना गाड़ी बंगला चाहते हैं और दहेज लेने की मूक सहमति देते हैं।

    ReplyDelete

Powered by Blogger.