ग्वालपाड़ा से लौटकर संजय कुमार/07 जून 2010
जब घर की आमदनी इतनी कम हो जाये कि गृहस्थी की गाड़ी खींचने में महिलाएं अक्षम और बेबस हो जाएँ तो अधिकाँश महिलायें अपने हालात का रोना रोती हैं और किस्मत को कोसती हैं.पर जब इन हालातों में जब कोई ठान ले तो जिंदगी का सफर उतना मुश्किल भी नहीं चाहे वो अल्पसंख्यक हो या फिर कम पढ़ी लिखी.
यह कहानी शुरू होती है आज से करीब छ: वर्ष पूर्व से जब टीक्कर गांव की एक महिला सीता देवी ने हालातों के सामने घुटने टेकने की बजाय एक स्वयं सहायता समूह का गठन किया और पुश्तैनी धन्धों को छोड़कर लहेरी जाती की मैरउन खातून और कुदेजा खातून से सलाह लेकर परिवार को चलाने के लिए चूड़ी बेचने का निर्णय लिया तो सबों ने इसे शेख और पठान जाति के लिए वर्जित काम बताया.पर इनके भी अपने तर्क थे और इनके तर्क और जज्बा के सामने सबों को झुकना पड़ा.इन्होने अगल बगल के गाँवों से १८ महिलाओं की एक टीम से इस स्वयं सहायता समूह के लिए बैंक से ऋण हेतु आवेदन किया जिसमे हो रहे बिलम्ब से तंग आकर आठ महिलाएं इस समूह से अलग हो गयी.बचे दस ने काफी मशक्कत के बाद दो साल के बाद आखिर बैंक से २५ हजार का ऋण ले ही लिया और उसी पैसे से इनका व्यवसाय फल-फूल रहा है.इस पचीस हजार में १० हजार की राशि अनुदान के रूप में है.स्वयं सहायता समूह की अध्यक्ष मीरा ९ वीं जमात तक और सचिव अंजुम आरा फोकानिया तक की पढाई की हुई है.वे बताती हैं कि शुरू में यह नया काम चुनने पर समाज के बहुत सारे ताने सहने पड़े और घर बिरादरी ने उन्हें जम कर कोसा.पर इन्होने तालमेल बिठा कर चलने के सिद्दांत पर ही काम करना बेहतर समझा और आज स्थिति यह है कि इनके ही व्यवसाय से जुगाड किये पैसे से घर चलता है और ये बैंक का ऋण भी चुकाने में सक्षम हैं.अब इनकी जिंदगी सम्मानजनक तरीके से गुजर रही हैं और उन्ही का समाज आज इनके वर्जनाएं तोड़ने की सराहना कर रहें हैं.
टूटी वर्जनाएं -अल्पसंख्यक महिलाओं ने लिखी नई इबारत
Reviewed by Rakesh Singh
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June 07, 2010
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