क्यों गुलमोहर का भरम तोड़ दिया?

जब भी चाहा तुमने
सिर्फ़ देह को चाहा
रूप के सौदागर बने
भोग सम्भोग के पार
ना जाना तुमने
एक नया आकाश
एक नई धरती
एक नयी दुनिया
तुम्हारे इंतजार में थी
मगर तुमने तो
दुनिया के तमाम
रास्ते ही बंद कर दिए
पता नहीं मिटटी में
तुम्हें कौन सा सुख मिला
जो तुम कभी
मूरत तक पहुँच ही नहीं सके
क्या जीने के लिए
सिर्फ देह ही जरूरी थी
या देह से इतर भी
कुछ होता है
ये ना जानना चाहा
तुम सिर्फ क्षणिक
सुख की खातिर
वक्त के लिबास
बदलते रहे
मगर कभी
अपना लिबास
ना  बदल पाए
और मैं
तुममे
अपना एक
जहान खोजती रही
देह से परे
एक ऐसा आकाश
जिसका कोई
छोर ना हो
जहाँ कोई
रिश्ते की गंध
ना हो
जहाँ रिश्ता
बेनाम हो जाये
सिर्फ शख्सियत
काबिज़ हो
रूहों पर
और ज़िन्दगी
गुजर जाए
मगर सपने
कब सच हुए हैं
तुम भी
वैसे ही निकले
अनाम रिश्ते को
नाम देने वाले
दर्द को ना
समझने वाले
देह तक ही
सीमित रहने वाले
शायद
सबका अपना
आकाश होता है
और दूसरे के आकाश में
दखल देने वाला ही
गुमनाम होता है
जैसे आज तुमने
मुझे गुमनाम कर दिया
जिस रिश्ते को
कोई नाम नहीं दिया था
उसे तुमने आज
बदनाम कर दिया
आह ! ये क्या किया
क्यों गुलमोहर का
भरम तोड़ दिया?







-वंदना गुप्ता,दिल्ली.
क्यों गुलमोहर का भरम तोड़ दिया? क्यों गुलमोहर का  भरम तोड़ दिया? Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on March 13, 2011 Rating: 5

5 comments:

  1. WOWWWWWWWWWWWWWWWWWWWWWWWWWWWW
    I LIKE PLZ DO CONTINUE
    THK RK SIR

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  2. शुक्रिया राकेश जी कविता को स्थान देने के लिए।

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  3. naye yug ki kavita ..koi lay hi nahi hoti hai..prose aur poetry mein koi fark nahi

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  4. Achchhi kavita hai.bedna se sarabore dil ko chhu jati hai.Nafrat bhi hota hai us insan ke prati jisne bhram tor diya gulmohar ka ,bhog aur sambhog se pare jisne unche aakash ki kalpana bhi nahi ki jise bas us deh ki gahrai me dub jana hi pasand tha jisne kabhi deh ki malkin ke hatho me hath dal kar do kadam chalna nahi chaha jise khelne ki jarurat thi bas. Bahut achchha

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  5. apke naam ke alawa main nahi janta Vandana ki aap kaun hain lekin apki iss akavita ke kuchh shabd mujhse hokar gujarte hain, main hairat me hu !

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