 कैसे मुमकिन है, ख़मोशी से फ़ना हो जाऊँ
कैसे मुमकिन है, ख़मोशी से फ़ना हो जाऊँकोई पत्थर तो नहीं हूँ, कि ख़ुदा हो जाऊँ
फ़ैसले सारे उसी के हैं, मिरे बाबत भी
मैं तो औरत हूँ कि राज़ी-ओ-रज़ा हो जाऊँ
धूप में साया, सफ़र में हूँ कबा फूलों की
मैं अमावस में सितारों की जिया हो जाऊँ
मैं मुहब्बत हूँ, मुहब्बत तो नहीं मिटती है
एक ख़ुश्बू हूँ , जो बिखरूँ तो सबा हो जाऊँ
गर इजाज़त दे ज़माना, तो मैं जी लूँ इक ख़्वाब
बेड़ियाँ तोड़ के आवारा हवा हो जाऊँ
रात भर पहलूनशीं हों वो कभी “श्रद्धा” के
रात कट जाए तो, क्या जानिये क्या हो जाऊँ
फ़ना = तबाह
कबा = लिबास
जिया = चमक , रोशनी
सबा = ठंडी हवा
--श्रद्धा जैन,सिंगापुर  
कोई पत्थर तो नहीं हूँ , कि ख़ुदा हो जाऊँ
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December 25, 2010
 
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Behtarin
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