अंतरवाद की व्याख्या करते हुए कहा कि जब-जब इस धर्म की ग्लानि होती है तथा अधर्म का अभ्युत्थान होता है तब-तब भगवान अपने को इस विश्व में पैदा करते हैं.
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत अभ्युत्थानम अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्.
दिव्य ज्योति जागृति संस्थान के द्वारा एन एच 107 सहरसा पूर्णिया मार्ग के मुरलीगंज के.पी. कॉलेज के नजदीक दिन के 2:00 बजे से शाम के 6:00 बजे तक चलने वाली नौ दिवसीय श्रीमद भागवत महापुराण कथा ज्ञान यश का मुरलीगंज में आयोजन किया गया है. कथा के पंचम दिवस में परम पूजनीय सर्व श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या सुश्री कालिंदी भारती ने बताया कि महापुरुषों ने कहा "एकं सदाविप्रा: बहुध वदंति" वह एक ही शक्ति है जिसे विद्वानों ने अलग-अलग नामों से संबोधित किया है. आज परमात्मा को अनेक नामों से पुकारा जाता है परंतु वास्तव में वह एक ही तो शक्ति है जो सब में प्रकाश रूप में विद्यमान है. एक शक्ति परमात्मा जो सत्य है. सब में प्रकाश रूप में विद्यमान है और उस प्रकाश स्वरूप परमात्मा का प्राक्ट्रय जब भीतर होता है तो आंतरिक अंधकार दूर हो जाता है. यह पांच विकार दुख, क्लेश, अशांति, अधीरता, आदि चौरासी का भव बंधन ये सब इसी अंधेरे की ही दी हुई सौगते हैं. ईश्वर अंतर्जगत का भुवनमस्कार है. वेदों के दृषियों ने कहा- "आदित्यवर्ण तमस: परस्तात्" ज्योति की ज्योति परम ज्योति है. वहां न तो पहुँच सकते हैं, न ही वाणी, न मन ही न तो बुद्धि से जान सकते हैं न ही दूसरों को सुना सकते हैं. उस प्रकाश स्वरूप परमात्मा का दर्शन को मात्रा दिव्य दृष्टि के माध्यम से ही किया जा सकता है.
आगे कहा कि जैसे इस लौकिक संसार को देखने के लिए दो आँखें दी है. वैसे ही इस संसार के रचनाकार को देखने के लिए भी अलौकिक आंख दी है. हमारे मस्तक पर भौहों के ठीक बीच. जिस प्रकार से आप अपनी चर्म चक्षु के द्वारा दर्पण के माध्यम से अपने आप को निहारते हैं. वैसे ही अपने अस्य वरीय प्रकाश और उसके अन्त: ईश्वरी प्रकाश और उसके अनंत वैभव का दर्शन दिव्य दृष्टि के द्वारा कर सकते हैं. समस्त ग्रंथों व महापुरुषों ने उस सत्य स्वरूप परमात्मा को, ईश्वरीय प्रकाश को देखने का सशक्त साधन दिव्य-दृष्टि ही माना है. यह दिव्य-दृष्टि आध्यात्मिक व अति सूक्ष्म दृष्टि है इसे खोलने के लिए स्थूल साधन या बाहरी ऑपरेशनों से जागृत नहीं हो सकती. यह मात्र आध्यात्मिक उर्जा से ही खुल सकती है. इस अलौकिक उर्जा के श्रोत केवल और केवल एक पूर्ण गुरु, एक तत्तवेता महापुरूष ही होते हैं. मात्र उनमें ही इसके उन्मूलन की सामर्थ्य है.
आगे भारती ने अंतरवाद की व्याख्या करते हुए कहा कि जब-जब इस धर्म की ग्लानि होती है तथा अधर्म का अभ्युत्थान होता है तब-तब भगवान अपने को इस विश्व में पैदा करते है. अजन्मा जन्म को स्वीकार कर लेता है. अकर्ता कर्तव्य को अभोक्ता उपयोग को स्वीकार कर लेता है. निराकार परमात्मा साकार हो जाता है. समय-समय पर अनेकानेक अवतार भारत की भूमि पर जन्म लिया है. भारत जिसे विश्व का हृदय भी कहा गया है क्योंकि ईश्वर सर्वभूत प्राणियों के हृदय में निवास करता है. इसलिए भगवान भारत रूपी हृदय में अवतार धारण करते हैं.
वहीं सारा पंडाल नंद महोत्सव के कारण गोकुल गांव की भांति लग रहा था. जब नन्हें से कृष्ण कन्हैया को पालने मे डाला गया तो सभी श्रद्धालु नतमस्तक हो उठे एवं सारा पंडाल ब्रजवासियों की भाँती नाच उठा.
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