मधेपुरा के मुरलीगंज में "श्रीमद् भागवत कथा ज्ञान यज्ञ" के सप्तम् दिवस भागवताचार्या महा मनस्विनी विदुषी सुश्री कालिन्दी भारती जी ने आज गोवर्धन पूजा प्रसंग को प्रस्तुत किया।
दीपावली के बाद कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा पर उत्तर भारत में मनाया जाने वाला गोवर्धन पर्व मनाया जाता है। इसमें हिंदू धर्मावलंबी घर के आंगन में गाय के गोबर से गोवर्धननाथ जी की कल्पना (तस्वीर या प्रतिमूर्ति) बनाकर उनका पूजन करते है। इसके बाद ब्रज के साक्षात देवता माने जाने वाले गिरिराज भगवान [पर्वत] को प्रसन्न करने के लिए उन्हें अन्नकूट का भोग लगाया जाता है।
गाय बैल आदि पशुओं को स्नान कराकर फूल माला, धूप, चन्दन आदि से उनका पूजन किया जाता है। गायों को मिठाई खिलाकर उनकी आरती उतारी जाती है तथा प्रदक्षिणा की जाती है। गोबर से गोवर्धन पर्वत बनाकर जल, मौली, रोली, चावल, फूल दही तथा तेल का दीपक जलाकर पूजा करते है तथा परिक्रमा करते हैं। कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को भगवान के निमित्त भोग व नैवेद्य में नित्य के नियमित पदार्थ के अतिरिक्त यथा सामर्थ्य अन्न से बने कच्चे-पक्के भोग, फल, फूल; अनेक प्रकार के पदार्थ जिन्हें छप्पन भोग कहते हैं। 'छप्पन भोग' बनाकर भगवान को अर्पण करने का विधान भागवत में बताया गया है। फिर सामग्री अपने परिवार, मित्रों को वितरण कर के प्रसाद ग्रहण करें।
गोवर्धन पर्वत को गिरिराज पर्वत भी कहा जाता है। पांच हजार साल पहले यह गोवर्धन पर्वत 30 हजार मीटर ऊंचा हुआ करता था और अब शायद 30 मीटर ही रह गया है। पुलस्त्य ऋषि के शाप के कारण यह पर्वत एक मुट्ठी रोज कम होता जा रहा है। इसी पर्वत को भगवान कृष्ण ने अपनी चौथी अंगुली पर उठा लिया था। श्रीगोवर्धन पर्वत मथुरा से 22 किमी की दूरी पर स्थित है।
श्री गिरिराजजी को पुलस्त्य ऋषि द्रौणाचल पर्वत से ब्रज में लाए थे। दूसरी मान्यता यह भी है कि जब रामसेतुबंध का कार्य चल रहा था तो हनुमानजी इस पर्वत को उत्तराखंड से ला रहे थे, लेकिन तभी देववाणी हुई की सेतुबंध का कार्य पूर्ण हो गया है, तो यह सुनकर हनुमानजी इस पर्वत को ब्रज में स्थापित कर दक्षिण की ओर पुन: लौट गए।
गोवर्धन पूजा की परंपरा द्वापर युग से चली आ रही है। उससे पूर्व ब्रज में इंद्र की पूजा की जाती थी। मगर भगवान कृष्ण ने गोकुल वासियों को समझाया कि इंद्र से हमें कोई लाभ नहीं प्राप्त होता। वर्षा करना उनका कार्य है और वह सिर्फ अपना कार्य करते हैं जबकि गोवर्धन पर्वत गौ-धन का संवर्धन एवं संरक्षण करता है, जिससे पर्यावरण भी शुद्ध होता है। इसलिए इंद्र की नहीं गोवर्धन की पूजा की जानी चाहिए। इसके बाद इंद्र ने ब्रजवासियों को भारी वर्षा से डराने का प्रयास किया, पर श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर उठाकर सभी गोकुलवासियों को उनके कोप से बचा लिया। इसके बाद से ही इंद्र भगवान की जगह गोवर्धन पर्वत की पूजा करने का विधान शुरू हुआ।
साध्वी जी ने गोवर्धन शब्द का अर्थ बताते हुए कहा गोवर्धन = गो+वर्धन अर्थात जिस संकल्प के द्वारा गो यानी गऊ माता की संख्या में वृद्धि हो, उसे ही गोवर्धन पूजा कहा जाता है। संस्थान के देशी 'गौ संरक्षण व संवर्धन कार्यक्रम- "कामधेनु" की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि गौ भारतीय संस्कृति का आधार है। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं. 'धेनुनामस्मि कामधुक'- धेनुओं में मैं कामधेनु हूँ। इस प्रकार गौ को उन्होंने अपनी विभूति बताया व सदा ही गोरोचन का तिलक अपने मस्तक पर सुशोभित किया। परंतु फिर भी आज देसी नस्लें लुप्त होती जा रही हैं। गोवध समाज के लिए एक कलंक बन चुका है। इसलिए गौ संरक्षण व संवर्धन की परम आवश्यकता है।
Shri Maharaj says- if we want to save the nation, we must save indigenous breeds of cows.
इसी कारण से श्री आशुतोष महाराज जी के दिशा- निर्देशन में संस्थान द्वारा कामधेनु प्रकल्प चलाया जा रहा है। जिसके अंतर्गत देसी गौ की वृद्धि में हेतु जन-जन को प्रेरित और प्रोत्साहित किया जा रहा है। साध्वी जी ने स्वयं व्यास-पीठ से मुरलीगंज वासियों के माध्यम से पूरे विश्व में गौमाता के संरक्षण की अपील की।
इसके अतिरिक्त सुश्री भारती जी ने पर्यावरण के वर्तमान स्थिति पर दृष्टिपात करते हुए बताया कि मानव द्वारा पृथ्वी के अंधाधुंध दोहन की वजह से संपूर्ण पृथ्वी आज एक गहरे संकट में है। वनों की निरंतर कटाई बढते जलवायु परिवर्तन का एक प्रमुख कारण है, जिससे न ही पृथ्वी पर प्रदुषण बढ रहा है, बल्कि धरती पर कितनी ही प्राकृतिक आपदाएं भी आ रही है। साथ ही धरती से पशु-पक्षियों की विभिन्न प्रजातियाँ लुप्त हो रही है।
वृक्षारोपण प्राचीन भारतीय जीवन शैली का अभिन्न अंग रहा है। भारत में प्रकृति हमेशा से ही पूजनीय रही है, जिसकी वजह से भारतीय जीवन शैली भी सदा से ही प्रकृति के अनुकूल रही है। इसलिए हर कार्य को करने से पहले पर्यावरण को ध्यान में रखा जाता था। परन्तु आधुनिकता के इस दौर में मानव प्रकृति के अनुदानों को भूल गया है और उसके स्वार्थ ने उससे केवल और केवल उससे एक लालची उपभोगता बना दिया है, जिसका हर कर्म प्रकृति के विरुद्ध है। परिणाम स्वरुप आज हम उस कगार पर खड़े हैं जहाँ न पीने के लिये साफ़ जल है, न साँस लेने के लिए साफ़ हवा, न खाद्यान्न। बल्कि पृथ्वी का अस्तित्व ही संकट में है। यदि समय रहते कोई संरक्षण हेतु कदम नहीं उठाया गया, तो मानव का भी इस धरती पर रहना मुश्किल हो जायेगा। इन सभी समस्याओं का एक मूल कारण है मानव के धूमिल मानसिकता के शिकार प्रकृति। दिव्य ज्योति जग्रति संस्थान का "संरक्षण" प्रकल्प इसी धूमिल होते मानवता को पुनर्स्थापित करने हेतु संकल्पित है।
संस्थान द्वारा संचालित संरक्षण प्रकल्प पिछले लगभग १ दशक से प्राकृतिक संरक्षण सम्बंधित जागरूकता में कार्यरत है। संरक्षण के अंतर्गत न ही लोगो को जागरूक किया जाता है, बल्कि उन्हें पौधारोपण, रैली अथवा अन्य कार्यक्रमों में शामिल कर प्रकृति को संरक्षित करने के लिए प्रेरित भी किया जाता है। संस्थान द्वारा हर साल एक विशेष अभियान के तहत हजारों लोगो को प्रेरित किया जाता है। अथवा उन्हें पौधे बांटे जाते हैं ताकि वे उन्हें अपने घर पर लगा सके और पर्यावरण संरक्षण में अपना योगदान दे सके।
दीपावली के बाद कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा पर उत्तर भारत में मनाया जाने वाला गोवर्धन पर्व मनाया जाता है। इसमें हिंदू धर्मावलंबी घर के आंगन में गाय के गोबर से गोवर्धननाथ जी की कल्पना (तस्वीर या प्रतिमूर्ति) बनाकर उनका पूजन करते है। इसके बाद ब्रज के साक्षात देवता माने जाने वाले गिरिराज भगवान [पर्वत] को प्रसन्न करने के लिए उन्हें अन्नकूट का भोग लगाया जाता है।
गाय बैल आदि पशुओं को स्नान कराकर फूल माला, धूप, चन्दन आदि से उनका पूजन किया जाता है। गायों को मिठाई खिलाकर उनकी आरती उतारी जाती है तथा प्रदक्षिणा की जाती है। गोबर से गोवर्धन पर्वत बनाकर जल, मौली, रोली, चावल, फूल दही तथा तेल का दीपक जलाकर पूजा करते है तथा परिक्रमा करते हैं। कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को भगवान के निमित्त भोग व नैवेद्य में नित्य के नियमित पदार्थ के अतिरिक्त यथा सामर्थ्य अन्न से बने कच्चे-पक्के भोग, फल, फूल; अनेक प्रकार के पदार्थ जिन्हें छप्पन भोग कहते हैं। 'छप्पन भोग' बनाकर भगवान को अर्पण करने का विधान भागवत में बताया गया है। फिर सामग्री अपने परिवार, मित्रों को वितरण कर के प्रसाद ग्रहण करें।
गोवर्धन पर्वत को गिरिराज पर्वत भी कहा जाता है। पांच हजार साल पहले यह गोवर्धन पर्वत 30 हजार मीटर ऊंचा हुआ करता था और अब शायद 30 मीटर ही रह गया है। पुलस्त्य ऋषि के शाप के कारण यह पर्वत एक मुट्ठी रोज कम होता जा रहा है। इसी पर्वत को भगवान कृष्ण ने अपनी चौथी अंगुली पर उठा लिया था। श्रीगोवर्धन पर्वत मथुरा से 22 किमी की दूरी पर स्थित है।
श्री गिरिराजजी को पुलस्त्य ऋषि द्रौणाचल पर्वत से ब्रज में लाए थे। दूसरी मान्यता यह भी है कि जब रामसेतुबंध का कार्य चल रहा था तो हनुमानजी इस पर्वत को उत्तराखंड से ला रहे थे, लेकिन तभी देववाणी हुई की सेतुबंध का कार्य पूर्ण हो गया है, तो यह सुनकर हनुमानजी इस पर्वत को ब्रज में स्थापित कर दक्षिण की ओर पुन: लौट गए।
गोवर्धन पूजा की परंपरा द्वापर युग से चली आ रही है। उससे पूर्व ब्रज में इंद्र की पूजा की जाती थी। मगर भगवान कृष्ण ने गोकुल वासियों को समझाया कि इंद्र से हमें कोई लाभ नहीं प्राप्त होता। वर्षा करना उनका कार्य है और वह सिर्फ अपना कार्य करते हैं जबकि गोवर्धन पर्वत गौ-धन का संवर्धन एवं संरक्षण करता है, जिससे पर्यावरण भी शुद्ध होता है। इसलिए इंद्र की नहीं गोवर्धन की पूजा की जानी चाहिए। इसके बाद इंद्र ने ब्रजवासियों को भारी वर्षा से डराने का प्रयास किया, पर श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर उठाकर सभी गोकुलवासियों को उनके कोप से बचा लिया। इसके बाद से ही इंद्र भगवान की जगह गोवर्धन पर्वत की पूजा करने का विधान शुरू हुआ।
साध्वी जी ने गोवर्धन शब्द का अर्थ बताते हुए कहा गोवर्धन = गो+वर्धन अर्थात जिस संकल्प के द्वारा गो यानी गऊ माता की संख्या में वृद्धि हो, उसे ही गोवर्धन पूजा कहा जाता है। संस्थान के देशी 'गौ संरक्षण व संवर्धन कार्यक्रम- "कामधेनु" की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि गौ भारतीय संस्कृति का आधार है। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं. 'धेनुनामस्मि कामधुक'- धेनुओं में मैं कामधेनु हूँ। इस प्रकार गौ को उन्होंने अपनी विभूति बताया व सदा ही गोरोचन का तिलक अपने मस्तक पर सुशोभित किया। परंतु फिर भी आज देसी नस्लें लुप्त होती जा रही हैं। गोवध समाज के लिए एक कलंक बन चुका है। इसलिए गौ संरक्षण व संवर्धन की परम आवश्यकता है।
Shri Maharaj says- if we want to save the nation, we must save indigenous breeds of cows.
इसी कारण से श्री आशुतोष महाराज जी के दिशा- निर्देशन में संस्थान द्वारा कामधेनु प्रकल्प चलाया जा रहा है। जिसके अंतर्गत देसी गौ की वृद्धि में हेतु जन-जन को प्रेरित और प्रोत्साहित किया जा रहा है। साध्वी जी ने स्वयं व्यास-पीठ से मुरलीगंज वासियों के माध्यम से पूरे विश्व में गौमाता के संरक्षण की अपील की।
इसके अतिरिक्त सुश्री भारती जी ने पर्यावरण के वर्तमान स्थिति पर दृष्टिपात करते हुए बताया कि मानव द्वारा पृथ्वी के अंधाधुंध दोहन की वजह से संपूर्ण पृथ्वी आज एक गहरे संकट में है। वनों की निरंतर कटाई बढते जलवायु परिवर्तन का एक प्रमुख कारण है, जिससे न ही पृथ्वी पर प्रदुषण बढ रहा है, बल्कि धरती पर कितनी ही प्राकृतिक आपदाएं भी आ रही है। साथ ही धरती से पशु-पक्षियों की विभिन्न प्रजातियाँ लुप्त हो रही है।
वृक्षारोपण प्राचीन भारतीय जीवन शैली का अभिन्न अंग रहा है। भारत में प्रकृति हमेशा से ही पूजनीय रही है, जिसकी वजह से भारतीय जीवन शैली भी सदा से ही प्रकृति के अनुकूल रही है। इसलिए हर कार्य को करने से पहले पर्यावरण को ध्यान में रखा जाता था। परन्तु आधुनिकता के इस दौर में मानव प्रकृति के अनुदानों को भूल गया है और उसके स्वार्थ ने उससे केवल और केवल उससे एक लालची उपभोगता बना दिया है, जिसका हर कर्म प्रकृति के विरुद्ध है। परिणाम स्वरुप आज हम उस कगार पर खड़े हैं जहाँ न पीने के लिये साफ़ जल है, न साँस लेने के लिए साफ़ हवा, न खाद्यान्न। बल्कि पृथ्वी का अस्तित्व ही संकट में है। यदि समय रहते कोई संरक्षण हेतु कदम नहीं उठाया गया, तो मानव का भी इस धरती पर रहना मुश्किल हो जायेगा। इन सभी समस्याओं का एक मूल कारण है मानव के धूमिल मानसिकता के शिकार प्रकृति। दिव्य ज्योति जग्रति संस्थान का "संरक्षण" प्रकल्प इसी धूमिल होते मानवता को पुनर्स्थापित करने हेतु संकल्पित है।
संस्थान द्वारा संचालित संरक्षण प्रकल्प पिछले लगभग १ दशक से प्राकृतिक संरक्षण सम्बंधित जागरूकता में कार्यरत है। संरक्षण के अंतर्गत न ही लोगो को जागरूक किया जाता है, बल्कि उन्हें पौधारोपण, रैली अथवा अन्य कार्यक्रमों में शामिल कर प्रकृति को संरक्षित करने के लिए प्रेरित भी किया जाता है। संस्थान द्वारा हर साल एक विशेष अभियान के तहत हजारों लोगो को प्रेरित किया जाता है। अथवा उन्हें पौधे बांटे जाते हैं ताकि वे उन्हें अपने घर पर लगा सके और पर्यावरण संरक्षण में अपना योगदान दे सके।
अहंकार बना हमेशा विनाश का कारण: भागवत कथा यज्ञ मे गोवर्धन पूजा प्रसंग
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
December 21, 2018
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