आलमनगर ड्योढी काली पूजा: न केवल लोगों की आस्था का केंद्र बल्कि सांप्रदायिक सौहार्द की भी मिसाल

मधेपुरा जिले के आलमनगर ड्योढी में होने वाली काली पूजा न केवल लोगों की आस्था का केंद्र है बल्कि सांप्रदायिक सौहार्द एवं सामाजिक त्योहार की मिसाल भी है. 


यहां मां काली की प्रतिमा कार्तिक अमावस्या की शाम में ही स्थापित की जाती है तथा पूरे विधि विधान से प्राण- प्रतिष्ठा कर विशेष पूजा की जाती है.

इस अवसर पर छप्पन प्रकार के व्यजनों से भोग लगाया जाता है. भक्तगण पूजा के अवसर पर सैकड़ों क्विंटल मिठाई चढ़ा कर मन्नते मांगते हैं. भक्तों की मन्नते पूरी होने पर मैय्या के सामने छागर की बलि दी जाती है. आलमनगर स्थिति ड्योढी में  इस जगह अमावस्या से 2 दिन पूर्व में मेला लग जाता है और इस मेले में सैकड़ों गांव से लोग मां काली के दर्शन के साथ-साथ मेला घूमने के उद्देश्य आते हैं. कहा जाता है कि क्षेत्र के इस प्रसिद्ध मेला में एक बहन की दूसरे बहन से एवं संबंधी की मुलाकात भी यहां होती है एवं एक दूसरे से गले लग कर खुशी से रो पड़ते हैं. कितनी शादियां इस मेले में मिलकर तय होती है इन सब कारणों से यह एक सामाजिक मिलन स्थल बन जाता है. मेले में आए हुए लोगों की श्रद्धा एवं उल्लास पत्थर दिल इंसान को भी भावुक बना देता है 

मशहूर है गाथा 

1890 में ब्रिटिश शासन के दौरान पूर्व छय परगना की राजधानी शाह आलमनगर के तत्कालीन राजा नदकिशोर सिंह के कुछ विश्वासी कर्मचारियों ने लगान का पैसा गबन कर लिया. तब वचन के पक्के राजा नदकिशोर सिंह  ने अपने रियासत के अधीनस्थ नवगछिया के एक साहुकार से लगान चुकाने हेतु कर्ज लेकर ब्रिटिश हुकुमत को धन चुकाया. कर्ज देते हुए साहूकार ने शर्त्त रखी कि अगर पूस के महीने मे कर्ज की रकम नही चुकायी गई तो रियासत साहूकार की हो जायेगी. समय से काफी पहले ही राजा के कर्मचारी कर्ज लौटाने के लिए साहूकार के पास गए, उसके (साहूकार) के मन मे खोट आ गया. और उसने कागज नहीं होने का बहाना बनाकर रकम लेने से इंकार कर दिया. तब राजा ने अपने परिसर ड्योढ़ी स्थित मां काली के मंदिर में पूजा अर्चना शुरू की एवं मां काली की कृपा से दुसरे दिन खुद साहूकार की तिजोरी से सारे कागजात गायब हो गये. इसके बाद से ही हर माह की अमावस्या की रात्रि को अनिरूद्ध सरस्वती दक्षिण काली की पूजा एवं बलि देने परंपरा शुरू की गयी एवं कार्तिक माह की अमावश्या को काली एवं महाकाल की मूर्ति बनाकर विधि विधान एवं वामपंथी विधि से मां काली की तांत्रिक पूजा होती आ रही है. कार्तिक चतुदर्शि को शमसान में जा कर शिवा पूजा की प्रथा भी है. यहां काली एवं महाकाल के गणों  भूत पिशाचनिशाचर आदि को काली पूजा से पहले संतुष्ट करने की परंपरा है. यह परंपरा आज तक कायम है. वहीं कार्तिक अमावस्या के दिन मां काली की 14 फीट उंची भव्य प्रतिमा बनाकर पूजा अर्चना की जाती है.  

विशेष व्यंजनों का भोग 

अमावस्या के दिन मां काली के प्रतिमा के प्राण-प्रतिष्ठा के उपरांत विशेष व्यजनों का भोग लगाया जाता है. इसमें छप्पन प्रकार के विशेष व्यंजन सहित मांस, मछली, पूरी, भुज्जा, एवं अपराजिता तथा कनैल के फूल के बीच स्ंसर्ग कराकर मैथुन उत्पन्न कर पंचमाकार बनाकर विशेष पूजा कर उन्हें अर्पित की जाती है.

सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल 

काली पूजा के दौरान सांप्रदायिक सौहार्द स्पष्ट देखने को मिलता है. विसर्जन की रात प्रतिमा निकलने के दौरान सब अपने घरों पर दीये जलाते हैं. वहीं विसर्जन के दौरान जिस पथ से मां काली की प्रतिमा गुजरती है. उधर आतिशबाजियों का सिलसिला देखते ही बनता है. विसर्जन के दौरान लगभग पचास हजार श्रद्धालुओं की भीड़ मां काली की जयघोष करते हुए निकलती है. विसर्जन में दूसरे धर्म के लोग भी शामिल होकर सांप्रदायिक सौहार्द की मिशाल पेश करते हैं. पूजा के दौरान मुस्लिम समुदाय के लोग भी मंदिर पहुंच कर मां काली की चरणों में नत मस्तक होकर नैवैद्य चढ़ाते हैं एवं दीपावली में दीप प्रज्जवलित करते हैं. कहते है कि प्रखंड क्षेत्र के लोग मां काली की झूठी कसमें नहीं खाते हैं. आज भी चन्देल वंश के राज्य परिवार के सदस्य सर्वेश्वर प्रसाद सिंह इस रीति रिवाज को कायम रखते हुए  पूजा अर्चना कर मां काली की महत्ता को कायम किये हुए है.
(रिपोर्ट: प्रेरणा किरण)
आलमनगर ड्योढी काली पूजा: न केवल लोगों की आस्था का केंद्र बल्कि सांप्रदायिक सौहार्द की भी मिसाल आलमनगर ड्योढी काली पूजा: न केवल लोगों की आस्था का केंद्र बल्कि सांप्रदायिक सौहार्द की भी मिसाल Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on November 06, 2018 Rating: 5

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