मधेपुरा जिले के आलमनगर ड्योढी में होने वाले काली पूजा न
केवल लोगों के बीच आस्था का केंद्र है बल्कि सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल भी है.
यहां मां काली की प्रतिमा कार्तिक अमावस्या की शाम में ही स्थापित की जाती है तथा
पूरे विधि विधान से प्राण- प्रतिष्ठा कर विशेष पूजा की जाती है.
इस
अवसर पर माता को छप्पन प्रकार के व्यजनों से भोग भी लगाया जाता है. भक्तगण पूजा के
अवसर पर सैकड़ों क्विंटल मिठाई चढ़ा कर मन्नते मांगते हैं. भक्तों की मन्नते पूरी
होने पर मैता के सामने छागर की बलि दी जाती है. 
मशहूर
है गाथा :- 1890 में
ब्रिटिश शासन के दौरान पूर्व "छय परगना" की राजधानी शाह आलमनगर के
तत्कालीन राजा नदकिशोर सिंह के कुछ विश्वासी कर्मचारियों ने लगान का पैसा गबन कर
लिया. तब वचन के पक्के राजा नदकिशोर सिंह ने अपने रियासत के अधीनस्थ नवगछिया के एक
साहुकार से लगान चुकाने हेतु कर्ज लेकर ब्रिटिश हुकूमत को धन चुकाया. कर्ज देते
हुए साहूकार ने शर्त्त रखी कि अगर पूस के महीने कर्ज की रकम नही चुकायी गई तो
रियासत साहूकार की हो जायेगी. लेकिन समय से काफी पहले ही राजा के कर्मचारी कर्ज
लौटाने के लिए साहूकार के पास गए, तभी उसके (साहूकार) के
मन मे खोट आ गया. और उसने कागज नहीं होने का बहाना बनाकर रकम लेने से इंकार कर
दिया. तब राजा ने अपने परिसर ड्योढ़ी स्थित मां काली के मंदिर में पूजा अर्चना
शुरू की एवं मां काली की कृपा से दूसरे दिन खुद साहूकार की तिजोरी से सारे कागजात
गायब हो गये. इसके बाद से ही हर माह की अमावस्या की रात्रि को अनिरूद्ध सरस्वती
दक्षिण काली की पूजा एवं बलि देने की परंपरा शुरू की गयी एवं कार्तिक माह की
अमावश्या को काली एवं महाकाल की मूर्ति बनाकर विधि विधान एवं वामपंथी विधि से मां
काली की तांत्रिक पूजा होती आ रही है. 
कार्तिक
चतुर्दशी
के दिन विधवाओं के द्वारा
शमशान में जा कर शिवा पूजा की प्रथा भी है. यहां काली एवं महाकाल के गणों को काली
पूजा से पहले संतुष्ट करने की परंपरा है. यह परंपरा आज तक कायम है. वहीं कार्तिक
अमावस्या के दिन मां काली की 14
फीट उंची भव्य प्रतिमा बनाकर पूजा अर्चना की जाती है. विशेष व्यंजनों
का भोग; अमावस्या के दिन मां काली के प्रतिमा के
प्राण-प्रतिष्ठा के उपरांत विशेष व्यजनों का भोग लगाया जाता है. इसमें छप्पन
प्रकार के विशेष व्यंजन सहित मांस, मछली, पूरी, भुज्जा, एवं
अपराजिता तथा कनैल के फूल के बीच स्ंसर्ग कराकर मैथुन उत्पन्न किया जाता है एवं
पंचमाकार बनाकर माता की विशेष पूजा के फलस्वरूप उन्हें अर्पित की जाती है. सांप्रदायिक
सौहार्द की मिसाल; काली पूजा के दौरान सांप्रदायिक
सौहार्द स्पष्ट देखने को मिलता है. विसर्जन की रात प्रतिमा निकलने के दौरान सब
अपने घरों पर दीये जलाते हैं. 
वहीं
विसर्जन के दौरान जिस पथ से मां काली की प्रतिमा गुजरती है. उधर आतिशबाजियों का
सिलसिला देखते ही बनता है. विसर्जन के दौरान लगभग पचास हजार श्रद्धालुओं की भीड़
मां काली की जयघोष करते हुए निकलती है. विसर्जन में दूसरे धर्म के लोग भी शामिल
होकर सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल पेश करते हैं. पूजा के दौरान मुस्लिम समुदाय के
लोग भी मंदिर पहुंच कर मां काली की चरणों में नत मस्तक होकर नैवैद्य चढ़ाते हैं
एवं दीपावली में दीप प्रज्जवलित करते हैं. कहते है कि प्रखंड क्षेत्र के लोग मां
काली की झूठी कसमें नहीं खाते हैं. आज भी चन्देल वंश के राज्य परिवार के सदस्य
सर्वेश्वर प्रसाद सिंह इस रीति रिवाज को कायम रखते हुए पूजा अर्चना कर मां काली की
महत्ता को कायम किये हुए हैं.
(रिपोर्ट: प्रेरणा किरण) 
आस्था का केंद्र है आलमनगर ड्योढी में होने वाली काली पूजा
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