
कहते हैं कि सभ्य मनुष्य की जिन्दगी में सिद्धांत एक अहम बात होती है. सिद्धांत मनुष्य का वो गुण है जो मानवता को कायम रखते हुए किसी व्यक्ति को पशु से अलग करता है. कल तक नेताजी जिनकी नैया पर सवार थे और जिनकी प्रशंसा करते अघाते नहीं थे, आज उनकी नैया डूबते देख दूसरे नाव पर बेहिचक कूद गए और यहाँ यदि उन्हें अच्छी जगह न मिली तो फिर सोचना क्या है, पहले पर कूद कर दूसरे को गरियाना शुरू कर देंगे. क्या इसे ही ‘राज’ 'नीति’ कहते हैं?
बिहार में विधान सभा चुनाव नवम्बर के आसपास होने की सम्भावना है. कल तक नेता और नेतृत्व विहीन समाज अचानक से नेताओं से पट गया है. कल तक जनता मर रही थी तो कुछ करने की तो छोड़िये, साथ बैठकर आंसू बहाने वाला कोई नहीं था और आज शहरों की गलियां होर्डिंग्स से पट चुकी है आप ‘पट’ जाएँ शायद

वोट तो करना है हर हाल में, वर्ना और भी ज्यादा अयोग्य आप पर शासन करने लगेंगे. जो भी हो, शायद सिद्धांतविहीन नेताओं में से ही आपको एक नेता चुनना है. आप एक ‘सुयोग्य’ और ‘कर्मठ’ (अपने सुख सुविधा के लिए नहीं, वरन जनता की सुख सुविधा के लिए) चुन लेते हैं तो यकीन मानिए आप किस्मत के धनी होंगे. वर्ना ठगे जाने पर आप सहरसा की कवियित्री स्वाती शाकम्भरी की उन पंक्तियों को याद कर संतोष कर लीजियेगा जिसका अर्थ था कि ‘जनता पांच सालों के लिए अपने हाथ कटवा लेती है, कुर्सी पर बैठा व्यक्ति (कर्म से) वही रहता है, मुखौटा बदल जाता है’.
‘बस एक टिकट चाहिए जिन्दगी के लिए’: नाईदर लेफ्टिस्ट, नॉर राइटिस्ट, आई ऍम वनली अपर्चुनिस्ट
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
August 22, 2015
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