लूट सके तो लूट,
अंत काल
पछतायेगा,
जब प्राण जायेंगे छूट’
विधान सभा चुनाव सामने है, कई दल ने चुनाव का बिगुल
भी फूंक दिया है, भले बिगुल से जोर की आवाज न निकली हो. चुनाव लड़ने के लिए मुद्दे चाहिए
होते हैं वो भी सशक्त. ऊपर वाले ने कोसी और पूर्णियां में एक नया मुद्दा दिया है,
ताजा. तूफ़ान से हानि का मुद्दा. विपक्षी का कहना है कि तूफ़ान से लाखों-करोड़ों लोग
प्रभावित हुए हैं और सरकारी राहत ऊंट के मुंह में जीरा के समान है. ये एक मुद्दा
है. सरकारी पक्ष का कहना है कि राहत कार्य जोर-शोर से चल रहा है और साथ ही तूफ़ान
या भूकंप से हुए क्षति का वास्तविक आकलन भी. शायद इसलिए कि सरकार को जवाबदेही का
निर्वाह विपक्ष की तुलना में अधिक गंभीरता से करना होता है. राहत गलत लोगों को मिल
जाए तो विपक्ष शोर मचायेगा और सही पीड़ितों को मिलने में देरी हो जाय तो भी
हल्ला-गुल्ला.
सरकारी
राहत सही लोगों को मिलना चाहिए, पर कोसी के लोग करें तो क्या करें. 2008 के
प्रलयंकारी बाढ़ के बहते पानी में हाथ धोना कई छोटे-बड़े जनप्रतिनिधियों, दलालों,
सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों को लखपति-करोड़पति बना गया. एक तरफ जहाँ वास्तविक
कमजोर और गरीब दो बूँद शुद्ध पानी के लिए तरस रहे थे, वहीं कई लुटेरे किस्म के
जनप्रतिनिधियों के घर की औरतें ‘बिसलेरी का अधहन’ (भात बनाने के लिए मिनरल वाटर) चढ़ाती थी. कई लोगों का
मानना है कि उस समय राहत की लूट इतनी हुई कि कोसी के समाज में आर्थिक असमानता और
अधिक बढ़ गई. छोटे-छोटे भी कई लोगों ने लाभ उठाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी.
और शायद
ये भी एक वजह है कि कई लोगों में लग चुकी आदत के मुताबिक अब भी जब मौका मिलता है,
सही तो सही, गलत तरीके से भी सरकारी राहत का लाभ उठाने वालों की कमी नहीं रहती है.
चुनाव के समय में तो कई नेता और प्रतिनिधि भी गलत लोगों को लाभ दिलाने की कोशिश
करते हैं जिससे कि उसे ‘खुश’ कर सकें और वोट बटोर सके.
पर आपदा
की स्थिति में वास्तविक पीड़ितों के प्रति संवेदनशीलता दिखाने की बजाय जब कुछ दलाल
और जनप्रतिनधि राहत राशि गलत लोगों को दिखाकर कमीशनखोरी के प्रयास में जी-जान से
लग जाएँ, तो फिर प्रशासन के पास जांच कर ‘ठग-पीड़ितों’ के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने के अलावे क्या रास्ता बच जाता
है?
आपदा और राजनीति: राहत नाम की लूट है, लूट सके तो लूट...
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
May 14, 2015
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