सरकार द्वारा जरूरी उपभोक्ता वस्तुओं पर सब्सिडी दिए
जाने के पीछे नीति यह है कि उन वस्तुओं का उपयोग आम-आवाम करते हैं. डीजल, पेट्रोल,
किरासन तेल और घरेलू गैस के अलावे एक और अतिमहत्वपूर्ण उपभोक्ता वस्तु है जिसपर
फिलवक्त सब्सिडी दिए जानेपर किसी का भी ध्यान नहीं गया है. वैसे शायद ही कोई घर
अछूता हो जहां इसका उपयोग जरूरी मानकर नहीं होता हो.
यह कहना
अतिशयोक्ति नहीं होगा कि इसका उपयोग भारतीय संस्कृति का एक हिस्सा बन चुका है. अतिथियों
के स्वागत में भोजन-पानी से पहले इस जरूरी उपभोक्ता वस्तु को नहीं परोसा जाय तो
स्वागत शिकायत में बदल जाती है. इतना ही नहीं स्वागत करने वालों को पिछड़ा मान लिया
जाता है. कहीं-कहीं तो इसे सभ्य होने का प्रतीक भी माना जाता है. किसी लाचारीवश
इसे नहीं पड़ोसा गया तो कभी-कभार बना काम भी बिगड़ जाता है.
गत
सप्ताह पूजा-पाठ के निमित्त एक दैनिक मजदूर को एक पड़ोसी अवकाशप्राप्त शिक्षक घरेलू
काम पर बुलाए थे. मजदूरी का 200 रूपया भी अग्रिम भुगतान कर किसी जरूरी काम के लिए
उन्हें बाहर जाना पड़ा. दिन के 12 बजे तक उस दैनिक मजदूर को चाय नहीं मिली. उसका
गुस्सा सातवें आसमान पर था. यहाँ तक तो ठीक था किन्तु मजदूर गुस्से का इजहार कर
चुप बैठने वाला नहीं था. उसने वहाँ रह रहे एक सज्जन को रूपया थमाया और यह कहकर
चलता बना कि ऐसे असभ्य लोगों के यहाँ हम काम नहीं कर सकते हैं.
यही हाल
सरकारी कार्यालयों का भी है. इच्छुक व्यक्ति जब कार्यालय बाबुओं से मिलने जाते हैं
तो अक्सर दूसरे कर्मी द्वारा यह सुना जाता है कि चाय पीने दुकान पर गए हैं. गरज यह
कि इसे ताजगी देने वाले पेय के रूप भी मान्यता मिल चुकी है. अगर घर में बुजुर्ग
हों तो उनकी ख्वाहिश बार-बार चाय पीने की होती है जिसके लिए अक्सर उन्हें महिलाओं
की झिड़की सुननी पड़ती है. बुजुर्ग बताते हैं कि कभी यह विदेशियों का पसंदीदा पेय
था. विदेशी कंपनी मुफ्त में भारतीयों को चाय पिलाती थी ताकि आदत पड़ने पर उनका
ग्राहक बनेंगे.
यह तब की
बात थी. अब तो यह आम भारतीयों की चाहत बन चुकी है.बिना चाय की चुस्की लिए दिन की
शुरुआत भी नहीं होती है. इतनी अहमियत रखने पर भी यह सब्सिडी लिस्ट से बाहर है,
किन्तु इसपर पुनर्विचार जरूरी है.
-देव नारायण साहा, अधिवक्ता-सह-पत्रकार (टाइम्स ऑफ इंडिया)
जरा सोचें: क्या चाय पर नहीं होनी चाहिए सब्सिडी ?
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
February 13, 2013
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