कागा बोल रहा है काँव।
आ रहा शायद परदेशी
मुझसे मिलने मेरे गाँव।
फिर बागों में चलके मुझको
झूला खूब झुलाएगा।
या खुद को बड़ा समझकर
बेकल दूर खड़ा शरमायेगा ।
पूछेगा मुझसे मिलकर कह दो
कि प्यार मैं करती हूँ।
सच को धोखा देकर फिर से
वो पागल दिल ठहरा
ना मुझको छोड़ के जाएगा।
मेरी ना को चतुराई से
हाँ बस हाँ कर जाएगा।
फिर दौड़ के अपनी बाँहो में
मुझको भर लेगा वो शायद।
या फिर से रूठ के पगला
मुझको खूब सताएगा शायद।
मन चंचल है ख्वाब ये अपना
खुद से ही बुन जाएगा।
टूटेगा हर सपना जब
परदेशी ना कोई आएगा।
--शम्भू साधारण, मधेपुरा
मन चंचल है..
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
December 26, 2011
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