कमज़ोर मन से रिसतेरक्त संबंध के ज़ख्म
लचर दलीलों
राहत भरी हँसी के मध्य
आँखों से मूक टपक रहे थे
हर करवट में कराहट ...
..........
शब्दों की पकड़
रिश्तों की भूख ..."
हमेशा तुमसे सुना , गुना
अपने मन को
बंदिशों से
स्वार्थ से परे रखा .......
पर कितनी सफाई से आज भी तुमने

अगर, मगर में बात कही !!!
ओह !
मुझे विषैले तीरों से बिंध दिया गया
और तुमने कहा -
'मारनेवाले की नियत गलत नहीं थी !'
मारने के बाद मारनेवाले का चेहरा बुझ गया
वह ख़त्म हो गया ...
ये सारे वाक्य
ज़ख्मों पर
मिर्च और नमक का कार्य कर रहे हैं !
मैंने कसकर रिसते घाव को बाँध दिया है
पर वे चीखें
जो मेरे दिल दिमाग को लहुलुहान कर रही हैं
रेशा रेशा उधेड़ रही है
उनका क्या करूँ ?
.........
बिछावन पर गिर जाने से ही दर्द गहरा नहीं होता
उनकी सोचो
जिनके पाँव चलने से इन्कार करते हैं
पर उनको चलना होता है
........
क्यूँ हर बार
इसे सोचूं
उसे सोचूं
इस बार - सिर्फ तुमसब सोचो
यदि संभव हो तो !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
--रश्मि प्रभा, पटना
यदि संभव हो तो
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
November 13, 2011
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November 13, 2011
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क्यूँ हर बार
ReplyDeleteइसे सोचूं
उसे सोचूं
इस बार - सिर्फ तुमसब सोचो
यदि संभव हो तो !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!'
कविता है???? हा हा हा फिर एक बार मेरे मन को मेरे विद्रोह को शब्द दिए गये हैं. उम्र के इस पदाव पर आ कर मैंने उन सबसे स्पष्ट कहा- बस अब और नही.खुद को आहत करने का अधिकार किसी को नही दूँगी.रक्त सम्बन्ध ???? गैरों को कहा फुर्सत कि .....सोचे हमारे लिए.ये जो रिसते हैं ज़ख्म .....अपनों के ही तो मारे पत्थरों से लगे होते हैं बाबु! तुम विचलित कर देती हो मुझे.