पंकज भारतीय /अररिया से लौट कर /२० अप्रैल २०१०
चौकिये नहीं, बंकरनुमा इस घर से झांक रहे ये लोग न तो सेना के जवान के हैं और न ही नक्सली या जेहादी.ये वो मासूम चेहरे है जिसे कुदरत के कहर ने इस तरह जमीन के अंदर आशियाना बनाने पर मजबूर कर दिया है.
जी हाँ,हम बात कर रहे हैं १३ अप्रैल को आये हुए चक्रवाती तूफ़ान का और ये लोग हैं बिहार के अररिया जिला में कुशियार गांव पंचायत के कोचगामा गांव के निवासी .दरअसल तूफ़ान आने के सातवें दिन भी जब सरकारी स्तर पर इनकी कोई सुधि नहीं ली गई तो गांव के लगभग दो दर्जन से अधिक परिवार ने जमीन खोदकर जमीन के अंदर अपना घर बना डाला.पीडितों की यह नायाब कोशिश प्रशासनिक विफलता को उजागर करती है.
जी हाँ,हम बात कर रहे हैं १३ अप्रैल को आये हुए चक्रवाती तूफ़ान का और ये लोग हैं बिहार के अररिया जिला में कुशियार गांव पंचायत के कोचगामा गांव के निवासी .दरअसल तूफ़ान आने के सातवें दिन भी जब सरकारी स्तर पर इनकी कोई सुधि नहीं ली गई तो गांव के लगभग दो दर्जन से अधिक परिवार ने जमीन खोदकर जमीन के अंदर अपना घर बना डाला.पीडितों की यह नायाब कोशिश प्रशासनिक विफलता को उजागर करती है.
कोचगामा के संथाली टोला में करीब ७० परिवार हैं,जो संथाल जनजाति के हैं.
चक्रवाती तूफ़ान में अधिकांश लोगों के घर उजड चुके है.दो वक्त रोटी का जुगाड तो किसी तरह हो जाता है लेकिन खुले आसमान के नीचे बच्चों के साथ गुजारना इनके लिए चुनौती थी.सरकारी आश्वासन छलावा साबित होने लगा और आँखे सरकारी मदद की आस में पथराने लगी.
धैर्य चूकने लगा तो टूटे घरों के तिनके के सहारे जमीन खोद कर घर बना लिया.अब इसी में इनकी रातें गुजरती हैं जिसके किसी तूफ़ान में भी उजारने का उन्हें कोई खौफ नहीं है.कुदरती कहर और प्रशासनिक उपेक्षा ने उन्हें फिर उसी आदिम सभ्यता के दौर में पहुचने को विवश कर दिया है.जाहिर है,इस गांव के लोगों की यह स्थिति सुशासन एवं सभ्य समाज के मुंह पर तमाचा है.
हैरत की बात तो यह है कि तूफ़ान के आये एक सप्ताह होने को है लेकिन आज तक पीड़ितों तक न कोई अधिकारी पहुंचा है और न कोई राजनेता.रहत के नाम पर उन्हें अब तक एक मुट्ठी अनाज भी मयस्सर नहीं है.प्रशासनिक संवेदनहीनता की कहानी सुनिए गांव के मुखिया लक्ष्मी रिसिदेव से-"कभी बोला जाता है कि फोटो लाओ तो कभी लिस्ट लाओ.दौड़ते-दौड़ते हम थक चुके हैं." बैजू हेम्ब्रम, होपनमय किस्कू,लक्खी टुडू ,नारायण मुर्मू,संझली मरांडी जैसे दर्जनों लाचार और बेबस पीड़ित हैं जो आज भी सरकारी मदद की टकटकी लगाये हुए अपने बंकरनुमा घर में बैठे हुए हैं.कवि नागार्जुन ने शायद ऐसे ही हालात में लिखा होगा-चक्रवाती तूफ़ान में अधिकांश लोगों के घर उजड चुके है.दो वक्त रोटी का जुगाड तो किसी तरह हो जाता है लेकिन खुले आसमान के नीचे बच्चों के साथ गुजारना इनके लिए चुनौती थी.सरकारी आश्वासन छलावा साबित होने लगा और आँखे सरकारी मदद की आस में पथराने लगी.
धैर्य चूकने लगा तो टूटे घरों के तिनके के सहारे जमीन खोद कर घर बना लिया.अब इसी में इनकी रातें गुजरती हैं जिसके किसी तूफ़ान में भी उजारने का उन्हें कोई खौफ नहीं है.कुदरती कहर और प्रशासनिक उपेक्षा ने उन्हें फिर उसी आदिम सभ्यता के दौर में पहुचने को विवश कर दिया है.जाहिर है,इस गांव के लोगों की यह स्थिति सुशासन एवं सभ्य समाज के मुंह पर तमाचा है.
कई दिनों तक चूल्हा रोया,चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया,सोई उनके पास.
जमीन के नीचे जिंदगी
Reviewed by Rakesh Singh
on
April 20, 2010
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