यह कैसी आजादी है,
जहां कहने को विकास तो खूब हुआ है,
पर हर युवा दिल मुरझाया हुआ है.
विज्ञापन और भाषण बढ़ता जा रहा है,
पर आदमी के हिस्से का राशन घटता जा रहा है,
बिचौलिए और दलाल मालामाल हैं,
पर आम लोग पामाल है.
नेताओं, अफसरों, ब्रोकरों का धन 
बेतहाशा बढ़ रहा है,
बेतहाशा बढ़ रहा है,
पर घाटे से घबराया किसान आत्महत्या कर रहा है.
हम ग्रहों पर जीवन और पानी तलाश रहे हैं,
पर लोगों को शुद्ध पीने का पानी नहीं दे पा रहे हैं.
एवरेस्ट से लेकर चाँद तक फतह कर आये हैं,
पर अब तक रोटी की जंग नहीं जीत पाए हैं.
यहाँ आबादी तो बढ़ी है,
हमारी सामरिक शक्ति बढ़ी है,
पर आत्मशक्ति घटी है.
इस स्वतंत्रता में खून सस्ता हुआ है,
पर ‘नून’ महंगा हुआ है.
भ्रष्टाचार बढ़ा है,
पर शिष्टाचार घटा है.
निर्दोष जेलों में सड़ रहे हैं,
मूर्ख शिक्षा बाँच रहे हैं,
और ‘मुन्नाभाई’ मरीज जांच रहे हैं.
पर संबंधों के सेतु ढहाए हैं.
यहाँ ग्रहों नक्षत्रों की दूरियां तो घटी है,
पर दिलों की दूरियां बढ़ी है.
हम अंतरिक्ष में पाँव पसार रहे हैं,
पर पड़ोसियों से नाते बिसार रहे हैं
हमने उन्नत रडार, युद्धपोत, फाइटर विमान 
और अणुबम बनाये हैं,
पर महंगाई, भ्रष्टाचार, उग्रवाद और आतंकवाद
को काबू नहीं कर पाए हैं.
15 अगस्त 1947 ने हमें फहराने को दिया है-तिरंगा,
किन्तु साधे छ: दशकों की आजादी में करोड़ों तन हैं-अधनंगा.
और उदास मन आजादी का परचम लहरा रहे हैं.
दूसरी ओर झोंपडियों में लोग गरीबी
और ग़ुरबत का गम पीते हैं.
दशकों में हमने ऐसा अर्थतंत्र चलाया है,
कि गरीबी की समंदर में 
समृद्धि का टापू उग आया है.
बड़े-बड़े दावों के बीच चौंसठ वर्षों के लंबे सफर में,
समृद्धि का टापू उग आया है.
बड़े-बड़े दावों के बीच चौंसठ वर्षों के लंबे सफर में,
हमने दो देश बनाया है,
आलीशान इमारतों में विहँसता इंडिया,
और झुग्गियों में बिसूरता भारत बसाया है.
--आनंद मोहन, पूर्व सांसद 
   मंडल कारा, सहरसा 
यह कैसी आजादी ?///आनन्द मोहन (पूर्व सांसद)
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मै पूर्व सांसद आनंद मोहन के इस कविता से पुर्णतः सहमत हूँ |उन्होंने अपने कविता में हमारी आजादी का जिस तरह वर्णन किया है वो वाकई दुःखदाई है| आज भले ही हम आजाद है , लेकिन आज भी हमारी मानसिक स्वतंत्रता कोसों दूर है |
ReplyDeleteसहमत हूँ |
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